पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/१०४

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" “वाह, भैया जा रहे हैं लेने को।" “कौन भैया?" "बड़े भैया, और कौन!" “उसने तुझसे कुछ कहा है?” “कहा है, भाभी ने बुलाया है उन्हें।" "बुलाया है, यह क्या कहती है?" "भाभी का खत आया है कि मुझे लेने को अपने भैया को भेज दो।" "उसने क्या वहाँ कोई खत लिखा था?" “मैंने लिखा था।" “तूने क्या लिखा था?" “लिखा था, भाभी तुम आओ, भैया और अम्माँ तुम्हें बहुत याद करते हैं।' “पगली, मुझे क्यों नहीं बताया?" "भूल गई अम्माँ।" “कहाँ है खत? देखू!" "भैया के पास है।" कुछ देर अरुणादेवी चुप रही। फिर बोली, “जा, तू अपना काम कर।" रात को अरुणादेवी ने दिलीप से बात की। अरुणा ने कहा, “बेटा दिलीप, कहो, अब तुम्हारा क्या इरादा है? मुझसे दिल की बात कहो।" "क्या बात, माँ?" "क्या मैं तुम्हारे ब्याह की बात दूसरी जगह पक्की करूँ?" "इसकी क्या ज़रूरत है माँ!" “तुम्हें ज़रूरत नहीं है-मुझे तो है। फिर तुम्हारे दूसरे भाई-बहिन भी तो हैं, यह भी तो सोचो।” "तो उनका ब्याह कर दो।" “तुम बड़े भैया हो, हमारे बड़े बेटे हो, सो तुमसे पहले उनका ब्याह कैसे हो सकता है?" “वाह, नहीं कैसे हो सकता है? भीष्म ने अपना विवाह नहीं किया अपने छोटे भाइयों का किया या नहीं?" दिलीप ने हँसकर कहा। दिलीप की उस सूनी-सी हँसी में एक विचित्र खोखलापन देखकर अरुणादेवी कुछ देर चुपचाप दिलीप का मुँह ताकती रही। फिर उसने दिलीप को पास खींचा, उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “दिलीप, तू माँ से भी मन की बात नहीं कह सकता पगले?" "मन की बात कौन-सी है माँ?" “माया का खत आया है न?" "हाँ।" दिलीप ने सिर नीचा कर लिया। "तो तू उसे लाने कानपुर जा रहा है?" “यह तुमसे कितने कहा?" "तू ही कह, किसी के कहने से क्या?"