पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/१०३

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"देखूँगा, तेरी माँ से भी तो सलाह करनी होगी।"

परन्तु माया की माँ बेटी को दिल्ली भेजने के लिए किसी तरह राज़ी न हो सकी। माया का दिल्ली जाना न हुआ। अब वह धड़कते कलेजे से अपने उस छोटे-से पत्र की क्या प्रतिक्रिया होती है, इसी की प्रतिक्षा करने लगी। उस छोटे-से पत्र में उसने अपना सम्पूर्ण व्यंग्य, साहस, प्रेम, वैकल्य, अवशता कूट-कूटकर भर दी थी। उसकी आँखों में करुणा की मधुर मूर्ति थी, पर रक्त की प्रत्येक बूँद में वह निष्ठुर, कठोर अभिमान-भरा दिलीप व्याप्त हो गया।

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दिलीप ने उस पत्र को मुट्ठी में कस लिया और इतनी ज़ोर से मुट्ठी भींच ली कि उसके नाखून उसके माँस में घुस गए। उसके होंठ संपुटित हो गए। मन से कहने लगा–चल, और जाकर कह, मैं आ गया, चलो। परन्तु उसका मन जितना चंचल हो रहा था उतना ही जड़ उसका शरीर हो रहा था। उसमें न इतना साहस था, न बल, कि माता से, पिता से, करुणा से मन की बात कह सके। माया को पत्र लिखना तो बहुत दूर की बात थी।

दिलीप आहत पशु की भाँति कराहता हुआ इधर-उधर फिरने लगा। उसका मन किसी भी काम में न लगता था। बहुधा वह बहुत ही जल्दी सुबह उठकर जंगलों में निकल जाता, और दिन-दिन-भर घूमता रहता।

यद्यपि डाक्टर और अरुणादेवी उससे उदासीन हो गए थे, परन्तु उनकी ममता ने उन्हें विवश कर दिया। डाक्टर ने पत्नी से कहा :

"दिलीप की हालत दिन-दिन बिगड़ती जा रही है, देखती हो?"

"तुम्हीं देखो–दिलीप ही क्या और बेटों की ओर भी देखो।"

"खैर, अभी तो दिलीप का प्रश्न हल करो। यह तो हम पर एक भारी पारिवारिक विपत्ति आई दिखती है।"

"मैं कहती हूँ, अब मन की दुर्बलता से क्या होगा? मैं स्वीकार करती हूँ, वह मेरे पेट का बेटा है। तुम भी यही स्वीकार कर लो। सब झंझट और दुविधाएँ खत्म हैं, मनचाही जगह उसका ब्याह कर दो। इसके बाद दूसरों के भी ब्याह कर दो। उनकी उम्र है। समय पर लड़कों की ब्याह-शादी न होगी तो वे आवारा होंगे ही। तुम सब बातें समझकर भी नहीं समझ रहे हो।"

"ऐसा ही करो फिर, तुम आज दिलीप से बात करो।"

परन्तु दिलीप से अरुणादेवी बातें करें इससे प्रथम ही करुणा ने हँसते-हँसते माँ के गले में बाँह डालकर कहा, "माँ, भाभी आ रही हैं।"

"कौन भाभी?"

"वही कानपुरवाली।"

"पागल हो गई है, कैसे आ रही हैं?"