पृष्ठ:धर्मपुत्र.djvu/१०१

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हूँ। अब तुम्हारी एक न मानूँगी–चाहे जो भी कुछ हो जाए, तुम्हारी गोद में तुम्हारी दौलत डाल दूंगी। तुम्हारी ज़िन्दगी को अब मैं यों सूनी न रहने दूंगी।"

"यह क्या कहती हो बहिन, यह तो कभी होने का नहीं।"

"क्यों नहीं होने का?"

"बस बहिन, मुझे परदे में ही रहने दो–मेरे ही लड़के के सामने मुझे नंगा मत करो, मैं हरगिज़ यह बर्दाश्त नहीं कर सकती।"

"लेकिन बानू..."

"बहिन, ज़ख्म को मत नोचो। तुम्हारे पाँव पड़ती हूँ। तुमने उसे पढ़ा-लिखाकर लायक कर दिया। अब उसे ज़िन्दगी से भरपूर भी कर दो। मैं इतने ही से खुश हूँ।"

"सब कुछ तो तुमने सुन लिया।"

"सुन लिया बहिन, पर मुझे तुम पर भरोसा है। तुम्हारी जैसी जिसकी माँ हो, उस बेटे के क्या कहने!"

"तो तुम उससे मिलोगी भी नहीं?"

"नहीं, मैं कौन हूँ–यह वह न जान पाएगा।"

"मैं तुम्हें दु:खी नहीं कर सकती, पर बहिन, तुम सहारा पाकर भी बेसहारा रहोगी?"

"अब तो आदी हो गई हूँ। जब आदी न थी, तब भी तो आखिर रही ही। अब तो यह बेसहारा रहना ही मेरा सहारा है।" बानू हँस दी। पर अरुणा ने फिर मोती बिखेरे। बानू ने अरुणा के गले में बाँहें डाल दी और उसकी छाती में मुँह छिपा लिया।

बूढ़ी दासी ने चाय और नाश्ता सामने ला धरा। बानू ने हँसकर कहा, "तुम कहो तो भाभी, मैं इसे छू लूँ। जी करता है एक टुकड़ा तुम्हारे मुँह में ठूस दूँ।

"ऐसा गज़ब न कर बैठना कहीं। तुमने इसे छुआ और यह ज़हर हुआ। मैं खाते ही जैसे मर ही जाऊँगी।" अरुणा ने त्योरियों में बल डालकर मिठाई का एक टुकड़ा उठाकर बानू के मुँह में ठूँस दिया। और इसके बाद तो बानू सब कुछ भूल गई और वह ज़िद करके अरुणा को अपने हाथ से खिलाने लगी। अरुणा ने भी उसी तरह उसे खिलाया।

बहुत देर तक दोनों अभिन्न हृदय एक-दूसरे को समझते रहे, समझाते रहे, साँझ होने पर अरुणा ने कहा, "अब जाऊँगी बहिन, तो तुम्हें मैं अब अपने यहाँ आने को कहूँ नहीं?"

"बहिन इस बदनसीब से नाराज़ न हो जाना। तुम्हें मुझसे मिलने हर बार यहीं आना पड़ेगा, मैं न जा सकूँगी। और तुम्हें अपने होंठ सीने भी पड़ेंगे।"

"होंठ तो सिले ही पड़े हैं बहिन।" अरुणा ने उदासी से कहा। कुछ ठहरकर फिर कहा :

"न हो तो छिपकर उसे देख लो एक बार।"

"नहीं बहिन, नहीं।" बानू ने दोनों हाथों से छाती दबा ली। वह आँखें बन्द करके बैठ गई। अरुणा को और कुछ न सूझा–वह उसे समझा-बुझाकर चली गई।

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