८४ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र तो मैं इस विषय में ऐसे मनुष्यों से प्रस्ताव करूँगा जो चाहते हैं कि ऐसी रद्दी पुस्तकें विद्यालय में न पढ़ाई जाँय। अच्छा महाराज! "विषवृक्षोपि संवर्ध्य स्वयं छेत्तुमसाम्प्रतम्" आप इसी नीति का पालन कीजिए। वास्तव में आपकी सज्जनता और भद्रता अनुकरणीय है। क्या आप बतला सकते हैं कि लगभग कितना रुपया इस काम के लिए अपेक्षित है। सरस्वती द्वारा न मालूम आपने कितने पुरुषों के दर्शन करा दिए। परन्तु स्वयं सृष्टिकर्ता की तरह 'अलक्ष्यरूपता' में ही स्थित है ? यदि सरस्वती में नहीं तो वैसे ही एक अपना 'फोटो' इनायत कीजिए। भवदलौकिकगुणवशीकृतस्वान्ती भवतांदिदृक्षु- पद्मसिंह श० ओम् जालन्धर शहर १०-९-०५ श्रीमत्सु श्रद्धाभाजनेषु सादरं नमस्कृतिः ५ ता० का कृपापत्र मिला। अत्यन्त अनुगृहीत किया। विक्रमांक चर्चा का सरस्वती में निकलना 'एकाक्रिया द्वयर्थकरी प्रशस्ता' के अनुसार होगा तो ठीक, परन्तु एक तो सरस्वती के पाठक उसे फिर न खरीदेंगे दूसरे साइज बड़ा हो जायगा। नैषध चर्चा से बड़ा उसका साइज न होना चाहिए। आपके सब पुस्तकों का एक ही साइज होता तो अच्छा था अस्तु, किसी प्रकार वह निकलनी चाहिए। संस्कृत चन्द्रिका में मैंने कालिदास विषयक लेख नहीं पढ़ा। (एकबार जब मैं अजमेर में था, चन्द्रिका का मूल्य भेजकर मैनेजर से प्रार्थना की थी चन्द्रिका मेरे नाम जारी कर दें, परन्तु वे मूल्य हजम कर गये और चन्द्रिका न भेजी) 'नव साहसांकचरिता' मैंने नहीं पढ़ा। मैं आपकी पुस्तकें मंगाने के लिये किसी से अनुरोध इसलिए नहीं करता कि इससे आपकी आर्थिक सहायता हो नहीं किन्तु इसलिए कि लोग उन अपूर्व पुस्तकों को देखें और अपने जाड्य का परिमार्जन करें। वैद्य को रोगियों की इतनी आवश्यकता नहीं होती जितनी जरूरत की रोगियों को वैद्य की होती है।
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