पं० पद्मसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम ८३ लोकम्पृणगुणोत्कर्षभूमिः काव्यविदांवरः। सरस्वती समुत्पत्तिः कृता येन नवानवा ॥१॥ यदीयाक्षरविन्यास चातुरी चतुरो नरः। स्वशिरः कम्पयन्नास्ते दृष्ट्वा मोदभराकुलः ॥२॥ कलावयं कालिदासो नव्य इत्येव भाति मे। शुद्धारसवती वाणी भयत्र प्रदृश्यते ॥३॥ द्विवेदिश्रीमहावीरप्रसाद इतिनाम - ‘भाक् । सोऽयं परार्थसम्पत्ये शतं वर्षाणि जीवतात् ॥४॥ (६) ओम् जालन्धर शहर १४-८-०५ श्रीयुत् मान्यवर महोदयेषु सविनयं प्रणतयः भगवन् कृपापत्र मिला और पुस्तक भी। नितान्त अनुगृहीत किया। इस अहेतुक कृपा के बदले धन्यवाद के सिवाय आपकी सेवा में क्या समर्पित करूं? ला० बदरीदास एम० ए० का पत्र वापस भेजता हूँ। पुस्तक जिल्द बांधने के लिए दफ्तरी को दे दी है। कलेवर ठीक होने पर ही उसे पढ़ेगा। जिस पालिसी से पं० दुर्गाप्रसाद जी ने वात्स्यायन कामसूत्र छपा डाले, क्या उसी के सहारे तरुणोपदेश नहीं छप सकता? जो पुस्तक यौवनमदान्धों के दुराचरण छुड़ाने में कामयाब हुई है वह तो जरूर ही छपनी चाहिए। आजकल के युवकों को इस प्रकार की अत्यन्त उपयोगी शिक्षा न मिलने से न मालूम कितने घराने तबाह और बरबाद हो गए और कितने युवक अपने धन-यौवन को खो बैठे। इनके बचने का यदि कोई उपाय निकल आवे तो अच्छा ही है। पण्डित जी! मैं आपकी समालोचना-विषयक स्पष्ट भाषिता से बड़ा ही खुश हुआ। आपका बहुमूल्य समय व्यर्थ गंवाना तो मैं भी नहीं चाहता। मैं सोचता हूँ कि इस विषय में क्या किया जाय? ला. मुंशीराम की वर्तमान आर्थिक दशा देखते हुए आशा नहीं कि वे आपकी योग्यता और परिश्रम के अनुरूप कुछ दे सकें। परन्तु विद्यालय का पीछा इन भ्रष्ट पुस्तकों से जरूर ही छुड़ाना चाहिए। यदि कमेटी में आपके पत्र का अच्छा परिणाम न हुआ
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