७६ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र पुस्तकाकार लिखी जाय। पण्डित जी! बड़ा अनर्थ हो रहा है। ये पुस्तकें यहां के 'कन्या महाविद्यालय में पढ़ाई जाती है, और यहां की देखादेखी आर्यसमाजों के आधीन जितनी कन्या पाठशालायें हैं, उनमें भी इनका प्रचार है। हाँ, इस अन्याय का कुछ ठिकाना है ! जिन लोगों को शुद्ध नाम तक लिखना नहीं आता वे ग्रन्थकर्ता बने बैठे हैं। जब कि आपको छोटे छोटे लड़कों पर इतनी दया आई कि उनका पीछा भ्रष्ट पुस्तकों से छुड़ाकर छोड़ा, तो क्या अबोध अबलाओं पर आपको करुणा न आयेगी? हमें विश्वास है कि आपका दयालु अन्तःकरण अवश्य द्रवीभूत हो जायगा, क्योंकि "तामाभ्यगच्छद्रुदि तानु सारी कविः कुशोध्माहरणाय यातः निषाद विद्धाण्डज दर्शनोत्थः श्लोकत्वमापद्यत यस्य शोकः" आप भी तो 'कवि' हैं, और दयनीय भी अबला ही हैं! त्राहि भगवन् ! त्राहि !!! फिर लड़कों को तो ऊंची कक्षाओं में पहुंचकर अच्छी अच्छी पुस्तकें भी पढ़ने को मिल जाती हैं, परन्तु लड़कियों की शिक्षा की तो ये ही पुस्तकें पराकाष्ठा है। हिन्दी शिक्षावली तो देहाती मदरसों में ही पढ़ाई जाती है परन्तु ये "महा- विद्यालय" में पढ़ाई जाती हैं ? आपसे प्रार्थना है इस पर ध्यान दीजिए। 'मथुरामास्टर' से प्रशंसित 'तरुणोपदेश' हमें कब सुनने को मिलेगा? क्या जब हम वृद्ध हो जायंगे उस समय ? ___ पण्डित जी! मैं तो यहां जंगल में बैठा हूँ, कोई पुस्तकालय नहीं। न कोई विद्वान् ही है जिससे कोई पुस्तक देखने को मिल जाय, यहाँ तो ऐसी ही पुस्तकें मिलती हैं, जैसी आपकी सेवा में समालोचनार्थ भेजता हूँ, और विद्वान भी ऐसे ही है, जैसे इनके कर्ता ला० देवराज हैं। फिर 'सरस्वती' के लिये कथा कहाँ से लिखू ? किसी पुस्तक का नाम बतलाइए तो मंगा ही लूँ। मेघदूत के विषय में म० म०प० हरिदास शास्त्री से ही पूछिए, वे ही पता देंगे कि कहां मिलता है। शिबाबे लखनऊ को देखकर मुझे भी लिखिए कि क्या' पद्मसिंह १. पत्र पूरा नहीं है-सं०
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