पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/८७

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७२
' द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र

आपके सार्टिफिकेट पढ़कर परमानन्द हुआ। उनमें जो कुछ है, मैं आपको उससे भी अधिक पात्र प्रशंसा का समझता हूँ। दीर्घायुर्भूयात्।

जिस कुटुम्ब के साथ मैं रहता हूं वह कुटुम्ब, जिसमें तीन प्राणी हैं, एक महीना हुआ कानपुर चला गया। दो को कुछ बीमारी थी, उसी का इलाज कराने के लिए जाना पड़ा। वे लोग अब तक वहीं कमर्शल प्रेस में हैं। बहुत दूर के रिश्ते में मेरी एक भानजी है। वही यहाँ रह गई है। वही मुझे जिला रही है। छटांक भर गेहूं का दलिया, थोड़ी सी तरकारी (फल यहाँ मिलते नहीं) और सेर भर दूध, बस यही मेरी खुराक २४ घंटे में है। इसी से मैं अपनी शरीर-रक्षा कर रहा हूँ। जैसा कि मैंने आपको लिखा था मैं भी अबतक कानपुर चला गया होता मगर नहीं जा सका। कारण कुछ दुर्लभ संस्कृत पुस्तकें पंच भारती आदि मैंने हाल में मंगाई थीं। उन्हें दो-चार रोज थोड़ा-थोड़ा देखा। इतने ही मानसिक श्रम से मेरा दिमाग पकने सा लगा। पुराना उन्निद्र रोग फिर जी उठा। आज कई रोज से नींद नहीं। रात को आंखें बंद करता हूँ तो स्वप्न से देखा करता हूँ। तबीयत परेशान है। आराम कर रहा हूँ। लीडर तक नहीं पढ़ता। जी होमकर आपको यह पत्र लिख रहा हूँ। यह तो मेरी हालत है। इस पर आप मुझसे मेमरिज या आत्मचरित लिखाना चाहते हैं। मैं अब बहुत ही कम मानसिक परिश्रम करने योग्य हूं। मेरे पिछले जीवन से संबंध रखने वाले कोई नोट्स भी मेरे पास नहीं। फिर पुरानी बातों को याद करना मेरे लिए बहुत ही कष्टदायक है, क्षमा कीजिए। अभी आप मुझसे मिलने का कष्ट न उठाइएगा। ऐसा लिखना सदाचार का विघात करना है। पर मैं साफ़दिल और सच कहनेवाला हूँ, इससे कोई बात छिपाना नहीं चाहता।

अपनी याददाश्त लिखने के लिए आप मुझे ५) पृष्ठ देने को तैयार हैं, एतदर्थ धन्यवाद। आप शायद नहीं जानते कि सरस्वती, सुधा और माधुरी वाले मुझे मेरे साधारण नोटों के लिए भी करीब करीब इतना ही देते हैं। अभी उस दिन बिड़ला पार्क मेगज़ीन वालों ने मेरे कोई दो कालम के एक नोट की उजरत २५) भेजे हैं। सो यदि मैं कभी कुछ लिख भी सका तो ५) के लोभ में फंसकर मैं न लिखूँँगा। हाँ, यदि कोई ५) कालम दे और ५०००) पर कापीराइट भी, दस्तावेज लिखकर, देने को तैयार हो जाय, तो सामर्थ्य होने पर शायद मैं उसकी इच्छा पूर्ति कर सकूँ। सो भी ५०००) अपने लिए न लूँँगा। खैरात कर डालने के लिए लूँँगा। मेरे पीछे रायल्टी लेनेवाला कोई नहीं, यह शर्त में क्यों करूँगा? मई १९२५ की स्टैंड मैगजीन देखिए। उसमें एक आदमी ने अपना हाल लिखा है। इंडियन प्रेस ने उसे, दो वर्ष हुए, मरे पास भेजा था। उसकी इच्छा थी कि मैं भी अपना हाल वैसा ही लिखूँ।