पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/७५

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द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र आपने अनेक दृष्टियों से रामचरित मानस पर विचार किया है। समन्वय भी यथास्थान ठीक ठीक कर दिया है। आपने इस विषय में जो विद्वत्ता प्रदर्शित की है वह दुर्लभ है। मेरे मन में आया था कि शांडिल्य और नारद के भक्ति सूत्रों की याद आपको दिलाऊं। पर पुस्तकांत में जो सूची देखी तो लज्जित हो गया। मुछे ज्ञात हुआ कि आप इस विषय में मुझसे हजार गुना अधिक जानते हैं। भैया मिश्र जी, मैं रामायण का भक्त हूं रोज सुबह उठ कर कहता हूँ- मो सम दीन न, दीनहित, तुम समान रघुबीर भागवत के भी कुछ स्थल मुझे कंठ हैं। उनका भी पाठ करके कभी कभी अश्रु मोचन करता हूँ। मुझे मेरे मन की दिव्य पुस्तक लिखकर भेजी धन्यवाद । भगवान आपका कल्याण करे। विनीत महावीरप्रसाद द्विवेदी रम्य रास के कविवर से मुझ कवि किंकर का निवेदन · मैं ७० वर्ष का बूढ़ा हूं जरा जीर्ण हूँ। मस्तिष्क शीर्ण है। उन्निद्र रोग से पीड़ित हूं। मेरा यह समय राम राम रटने और विश्राम करने का है। साहित्य सम्बन्धी काम करने का नहीं। मुझसे सौगुना अधिक समर्थ मैथिली परिणय नामक महा- काव्य के कर्ता वहीं रायगढ़ में मौजूद हैं। यदि उनके हृदय स्थान में सहृदयता की सखी दया को भी स्थान मिला हो तो उसकी प्रेरणा से वे मुझे संशोधन और समालोचना के काम से बचा लेने की उदारता दिखावें। मनुष्य का हृदय नाना प्रकार के विकारों का आकर है। यही विकार भाव भी कहे जा सकते हैं। ये प्रस्तुत रहते हैं। अनुकूल सामग्री उपस्थित होने पर ये उद्दीप्त हो जाते, जग उठते हैं। जिस कविता के आकलन से इनकी उद्दीप्ति होती है वही उत्तम काव्य है। उदाहरण- (१) परम प्रेम मय मृदु मसि कीन्हीं। चारु चित्त भीती लिखि लीन्हीं। (२) अहह तात दारुण हठ ठानी। समझत नहिं कछु लाभ न हानी। (३) जौ रण हमहिं प्रचारइ कोऊ। लरहिं सुखेन काल कि न होऊ।