पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/७१

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श्री डॉ० बलदेवप्रसाद मिश्र जी के नाम (१) हर कुजा चश्मये बुबद शीरीं मुर्दमां मुर्गों मोर गिर्द आयन्द । -महावीरप्रसाद द्विवेदी (२) दौलतपुर (रायबरेली) नमो नमस्ते विबुधोत्तमाय ९ मार्च १९३५ आपका जो महाकाव्य सुकवि में क्रमश: प्रकाशित होता है उसे देखकर मुझे परमानन्द होता है। मेरे पड़ोस में एक मौजा डूंडी है उसमें पं० कालीचरण द्विवेदी रहते हैं। वे मुझ पर कृपा करते हैं। कभी-कभी दर्शन दे जाते हैं। आपको अपना मामा बताते हैं। उनसे भी आपकी प्रशंसा सुनकर आप में मेरी श्रद्धा खूब बढ़ गई है। मैं बहुत बूढ़ा हुआ। ७२ वर्ष का होने को आया पर स्वागत के लिए मेरी तैयारी देखकर भी मेरा महाप्रस्थान अब भी दूर ही मालूम होता है। हाथ पैर बहुत ही कम काम करते हैं। बाईं आंख बेकार-सी हो रही है, उस पर मोतिया बिन्द ने चढ़ाई बोल दी है । दाहिनी भी बहुत कमजोर है। इस दिशा में बिना परिश्रम कुछ काम बनता नहीं। हाँ, इंडियन प्रेस की थोड़ी सी कृपा की बदौलत किसी तरह प्राणरक्षा हो रही है। संसार में कितने ही लूले, लंगड़े, अंधे, अपाहिज जन भी हैं। जिनका अवलम्ब अन्य ही सज्जन शिरोमणि या बदान्य प्रवर हैं । रायगढ़ के राजा साहब की कल्याण कामना करने और उनके खाते में जमा होने के लिये राम नाम जपने वाले कुछ ऐसे भी अपाहिज हैं जिनके नाम आपके दफ्तर की किसी फर्द या रजिस्टर में दर्ज हो और जिनको उनके इस काम के एवज में कुछ मासिक वृत्ति मिलती हो। यदि हों और उनमें एक-आध और भी नाम लिखे जाने की गुंजाइश हो तो मुझ प्रार्थी का भी नाम दर्ज कर दीजिए।