पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/२१६

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द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र श्री प्रयाग ४-१०-१३ प्रियवर द्विवेदी जी धन्योऽसि! कृपाकार्ड का पुनः पुनः पाठकर चित्त खूब ही “सन्न" हुआ- अपने बाबत आप की वदली हुई राय देखकर बहुत कुछ लाभ संभावना हुई-मैं आपको.अब कष्ट न दूंगा-"गजपुरी" जी की "सतरें" छपी हैं उन्हें जरा गिन लीजिएगा। मैं समझता हूँ कोई लेखक १०,१५ पद्य से कम एक बार में आपके पास नहीं भेज सकता होगा। आप अस्वस्थ हैं। हमको उत्तर का कष्ट न उठाइयेगा। श्रीधर पाठक २७-४-२३ प्रियवर्य श्री पद्मसिंह जी नति निवेदनम् । आपका सुश्लाघ्यशालीनता-शोभित शुभ पत्र यथासमय समागत हुआ। अस्वास्थ्यवश उत्तर विलंबित हो गया, एतदर्थ क्षमा प्रार्थित हैं। आप अपनी ईश्वर-प्रदत्त साहित्यिक क्षमता से समभिज्ञ नहीं है। उसकी क्षमता का अन्दाज दूसरे लोग ही कुछ कुछ लगा सकते हैं। तुच्छ बारह सौ मुद्रा आपकी अमूल्य कृति के बारह वाक्य क्या बारह शब्दों पर वार दिये जाने को यथेष्ट नहीं। यों तो"मान को बीरा हीरा के समान है", परन्तु आपके अपरिमेय परिश्रम का यह । अल्प मात्रिक पारितोषिक मातृभाषा की साहित्यात्मा को पर्याप्त परितोषप्रद नहीं हो सकता। 'सतसई के प्रथम दोहे के सम्बन्ध में "माधुरी" में प्रकाशित "रत्नाकर" और द्विवेदीजी के लेखों को देखकर मुझे उसीदो की आपकी की हुई टीका देखने का औत्सुक्य उत्पन्न हुआ था। अतः आपको उसी विषय में लिखा था। यह पारितोषिक प्रश्न से मेरे सम्बद्ध होने के पहले की बात है, परन्तु पारितोषिक के कागजात के साथ जब आप का भाष्य स्वयं आ गया तब आपको कष्ट देने की आवश्यकता न रही। अब आप "भूमिका" और "भाष्य" दोनों का सम्मिलित संस्करण भेज रहे हैं। यह आपकी गुर्वी कृपा है। मैं उसे बड़े गर्व और गौरव का स्थान अपने लघु पुस्त- कालय में प्रदान कर समुचित समादर सहित सर्वदा सुरक्षित रक्तूंगा। मै भी अपने “पाठ्य संग्रह" की एक जिल्द जल्द ही जनाब की सेवा में भेज रहा हूँ। आशा है उसे आप सकृपा स्वीकार करेंगे।