पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/२१२

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१९८ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र (३) श्रीःओम श्रीः श्री प्रयाग २२-८-०५ श्रद्धेय मित्र आ पका समस्तीपुर का लिखा हुआ पत्र कल चन्द्रवार को मुझे दफ्तर में मिला- मैं आपका ध्यान नीचे लिखी हुई दो चार स्थूल बातों पर दिलाता हूं जो आपके लेखों में प्रचुरता से पाई जाती है- १. कर्ता को प्रायः सर्वत्रैव प्रकट रखना, अर्थात् जहां उसे पुरानी प्रथा के अनुसार गुप्त रहना चाहिये वहां भी उस्का लाना-इस्से अरोचकता उत्पन्न होती है और मुहाविरे का मजा मारा जाता है-आप की रीति के अनुसार निम्न वाक्य अशुद्ध है- (क) “ट्रवेबिक इस सब से बहुत ही प्रसन्न हुआ और खान के पास पहुंच कर अपने इञ्जिनों में और भी बहुत सी उन्नति की तथा नई नई कले बनाने लगा।" क्योंकि इस्में "अपने" के पहले "उस्ने" छूटा हुआ है, अथच “बनाने लगा" का कर्ता "वह" भी नहीं प्रकट है; अर्थात "उस्ने" और "वह" ऊपर निर्दिष्ट स्थानों में अवश्य होने चाहिये- ___ पर मुहाविरे (प्रचलित प्रथा) की रू से इस वाक्य में कोई गलती नहीं है, बल्कि कर्ता के दो जगह गुप्त रहने ही से इस्में रोचकता है-ऐसे ही ये दो और (ख) महादेव जी उसको पी गये पर कण्ठ से नीचे नहीं उतरा* (ग) आगरे के “राजपूत" पत्र के आफिस से एक नया मासिक पत्र "स्वदेश* बान्धव" के नाम से निकला है। चल जाय तो अच्छा है। 'ख'में 'पर' के बाद उन्होंने उसे लुप्त है, और 'ग' में 'चल जाय' का कर्ता 'वह' छिपा हुआ है- निम्न २, और ३, संख्यक बातें आपके सूत्र हैं- . २. 'जब', 'जब तक', 'जिस समय' इत्यादि के बाद 'तब', 'तब तक' 'उस समय' आदि का बिना विकल्प बर्ताव- ३. 'जब' के बाद 'तो' के प्रयोग का निषेध- ४. 'हुआ' के स्थान में 'गया' का प्रयोग; यथा-.

  • कहीं का कटिंग।