पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१९०

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"१७६ द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र (७७) ओम् 'रिप्लाइड अजमेर ६।४१०८ चैत्र सुदी १ सम्वत् १९६५ श्रीयुत माननीय पण्डित जी प्रणाम कृपाकार्ड मिला। यह जानकर बड़ा दुःख हुआ कि श्रीमान् को अभी आराम नहीं हुआ, कृपाकरके नियमित रूप से किसी सद्वैद्य का इलाज कराइए, अब ऐसे काम न चलेगा। इधर उधर घूमने से कुछ विशेष लाभ न होगा। जब आपकी यह दशा है तो 'सरस्वती' के अनाथ होने में क्या संदेह है ? परमात्मा करे कि आप शीघ्र रोगमुक्त होकर इसकी रक्षा करने में तत्पर हो सकें। पण्डित जी, क्या अर्ज करूँ मैं निहायत शर्मिन्दा हूँ कि मैंने कभी आपकी आज्ञा का पालन नहीं किया, या न कर सका। अब तो भला मैं एक और झंझट में फंस गया। जरा यह काम चल पड़े तो मैं यथासम्भव शीघ्र ही कालिदास की अद्भुत उपमाओं पर कुछ लिखने का उपक्रम करूंगा। इतनी आज्ञा हो तो 'सतसई की समा- लोचना' भेज दूं? मेरे ख्याल में तो उसे लोग बड़े शौक से पढ़ेंगे, मैंने उसे कई काव्य रसज्ञों को सुनाया है, उन्होंने उसे पसन्द किया है। उसमें परिहास का आधिक्य है सही, पर वह उत्तेजक नहीं किन्तु रोचक है, सभ्यता की सीमा से भी बाहर नहीं गया। आप उसकी लम्बायमानता से कुछ घबरा गये, पर यह तो सोचिए जिस आदमी ने बिहारी जैसे कवि की कविता को धूल में मिलाया हो और भी बहुत से प्राचीन कवियों के काव्य को भ्रष्ट किया हो अर्थात् जो 'जुरायम पेशा मुजरिम' हो, वह 'किसी रियायत का मुस्तहक नहीं, उसे पूरी सजा मिलनी चाहिए, इसलिए मैं समझता हूँ कि विद्यावारिधि की करतूत को देखे, जो कुछ आलोचना में हँसी दिल्लगी की गई है, जो चुटकियां ली गई हैं वह नामुनासिब नहीं। बल्कि कुछ और ज्यादह होता तो अच्छा होता। मेरी सम्मति में ऐसे लेखों की लम्बायमानता पाठकों के उद्वेग का हेतु नहीं हो सकती। वह 'गुलेरी' जी के 'आंख' विषयक लेख से तो बड़ी नहीं? जब उस जैसे रूखे मजमून को लोग साल भर तक पढ़ते रहे थे, तो यह तो तीन चार महीने से ज्यादह का मास नहीं। यदि आप उसे छापें तो कहीं कहीं से दो चार पंक्तियों से अधिक कांट छांट न करें। मैंने उसे 'बिहारी' परलोक स्थित आत्मा की प्रेरणा से लिखा है, सच जानिए लिखते समय कई बार, 'बिहारी दुर्दशा' पर मुझे असह्य मनोवेदना हुई है, अश्रुपात हो हो गया है, यदि मैं कवि होता या