पृष्ठ:द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र.djvu/१६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- ण - न लगेगा, क्योंकि इस तरह की प्रणाली औरों की भी तो है। आप समझदार है, जो कुछ भी आप उचित समझेंगे वही करेंगे। प्रयाग में कुछ काम है । १०-५ दिन में वहां जाने का इरादा है। यदि जाना हुआ तो आपसे भी मिल लेगे।” (द्विवेदी पत्रावली पृष्ठ ६१) । इससे उस समय की सरकारी नीति तथा उस नीति से सामंजस्य बनाए रखने की द्विवेदी जी की प्रवृत्ति का पता लगता ह। ___स्व० श्रीधर पाठक जी के जिन पत्रों को मैं यहां प्रकाशित कर रहा हूं, उनमें भी अधिकांश में उस काल की लेखन प्रणाली और व्याकरण संबंधी विवाद है। श्रीधर पाठक जी ने एक स्थान पर स्पष्ट लिखा है कि-"कर्ता को प्रायः सर्वत्रैव प्रकट रखना अर्थात् जहां उसे पुरानी प्रथा के अनुसार गुप्त रखना चाहिए, वहां भी उसका लाना, इससे अरोचकता उत्पन्न होती है और मुहाविरे का मजा मारा जाता है।" इसके बाद अनेक उदाहरण देकर द्विवेदी जी के विचारों का खंडन करते हुए अन्त में उन्होंने लिखा है-"मैं कोई नवीन प्रणाली निकालना नहीं चाहता, परन्तु शिष्ट क्षुस्य प्रथाका परम पक्षपाती हूं-मुझे राजा शिवप्रसाद, पं० राधाचरण गोस्वामी, लाला बालमुकुन्द गुप्त की लेख शैली बहुत रुचती है-मुझे असीम प्रसन्नता हो यदि आप इन सुलेखकों का अनुसरण कर सकें।” (२२-८-०५ को प्रयाग से लिखा पत्र) श्री बालमुकुन्द गुप्त जी के पत्रों में सुदूर अतीत की अनेक जानने योग्य बातें हैं। उस काल की साहित्यिक चोरी, साहित्यिक विवाद और एक दूसरे के प्रति प्रेम और आदर के अनेक उदाहरण गुप्त जी के पत्रों में भरे पड़े हैं। ये पत्र ऐसे हैं कि जिनका महत्व आज भी कम नहीं हुआ है। हिंदी भाषा और साहित्य के विकास को स्पष्ट करने के लिए इन पत्रों को प्रमाण रूप में रखा जा सकता है। और इसी दृष्टि से इन पंक्तियों के लेखकों ने स्व० महावीर प्रसाद द्विवेदी, पद्मसिंह शर्मा, श्रीधर पाठक, बालकृष्ण भट्ट और बालमुकुन्द गुप्त के महत्वपूर्ण पत्रों का यह संग्रह प्रस्तुत किया है। इन पत्रों से उस काल की ऐतिहासिक स्थिति पर पूर्ण प्रकाश पड़ता है। प्लाट नं० १५, सिद्धगिरि बाग बैजनाथ सिंह 'विनोद १५, अगस्त १९५७