पं० पसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम १२७ समुचित सामग्री प्राप्त न होने पर भी जो लोग लालच से या नामवरी की खातिर किसी दुष्कर काम का प्रारंभ कर देते हैं उनके प्रति किसी कवि की अन्योक्ति है- "वंशः प्रांशुरसौधुणज्ञणमयो जीर्णवरत्रा इमाः, कीलाः कुण्ठतया विशान्ति न महीमाहन्यमाना अथि। आरोहव्यवसाय साहसमिदं शैलूष संत्यज्यतां, दूरे श्री निर्कटेकृता-महिषप्रैवेयघण्टारवः ॥" 'हे नट! मेरा यह ऊंचा बांस घुन खाया हुआ जिसमें बहुत से छेद है, और ये रस्सियां पुरानी हैं, ठुन्छ होने के कारण ऊपर से ठोकने पर भी मेरवें जमीन में नहीं घुसती, ऐसी सामग्री के सहारे, ऊपर चढ़ने (बांस पर चढ़कर तमाशा दिखाने) के साहस को छोड़ दे, क्योंकि इसमें धन प्राप्ति तो दूर है, और यमवा- हनमहिष के गले के घन्टे की आवाज पास सुनाई दे रही है !! पद्मसिंह (३६) ओम् नायकनगला १७-१-०७ श्रीमत्सु सादरं प्रणामाः १०१-१० का कृपापत्र और पैकेट मिल गया, इस कृपा के लिए अनेक धन्यवाद। आशु कवि जी का हाल सुनकर हँसी आई, स्वदेशी आन्दोलन विषयक कविता शायद फुलर साहब के चेलों के डर से न लिखने दी हो । अस्तु, 'सरस्वती' की कृपा से उनकी मूर्ति के दर्शन तो हुए, नहीं ये लोग फारसी के उनका या हहुआ जानवर की तरह सर्वसाधारण को दिखलाई भी नहीं देते। विक्रमांक-बंबई से तो नहीं मिलता, वहां नहीं रहा, नहीं मालूम अब छपेगा भी कि नहीं। किसी संस्कृत बुकसेलर के यहां कोई कापी पड़ी हो तो शायद मिल जाय। जैसे पारसाल एक कापी लाहौर में देखी गई थी, कृपा करके किसी अपने परिचित बुकसेलर से मालूम कर दीजिए। १. शिक्षा-सं०
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