इस नैषधीय पद्य के साथ इसे (सौदा के शेर को) पढ़िए- "कि इश्क का शौला है जो भड़का तो रहा क्या, ए जान निकल जा कि लगे मुत्तलिस आतिस ॥" (पं० पद्मसिंह शर्मा के पत्र संख्या ३२ से उद्धृत)। शर्मा जी में भावुक सहृदयता तथा जिन्दादिली का इजहार कई पद्यों के विषय में लिखे गए मत से मिलता है। "गाथासप्तशती" की एक गाथा की सरसता तथा भावप्रवणता का संकेत करते हुए वे लिखते हैं- 'गाथा सप्तशती' की एक गाथा हमें बहुत पसंद आई जिसका संस्कृत अनुवाद दे कर आपसे प्रार्थना करता हूं कि उसे किसी सुंदर संस्कृत छंद में हमारे लिये अनुवाद कर दीजिए, तद्यथा- "स्फरिते वामाक्षि, त्वभि यद्येष्यति स प्रियोद्य तत्सुचिरम् । संमील्य दक्षिणं त्वयवेतं प्रलोकयिष्य ।।".. यह किसी प्रोषितपतिका या विरहिणी की (वामनेत्र को फरकता देख कर) उक्ति है। नेत्र के लिए इनाम अच्छा मुक्तरिर किया है। उसी जिन्दादिली के कारण वे बिहारी के कायल हो गए। बिहारी सतसई के विषय में जिन दिनों शर्मा जी का बिहारी-सतसई से परिचय हुआ ही था, वे लिखते हैं:- ___ "बिहारी-विहार" सतसई का संस्कृत अनुवाद-"शृंगार सप्तशती" तथा लाला चन्द्रिका सहित उसकी एक शुद्ध प्रति, ये सब हम देखना चाहते हैं, इसके लिये बनारस को लिखते हैं, शायद वहां से ये मिल जायं, क्या कहें सतसई हमें चिपट बैठी, गले का हार बन गई, देखिए कब इससे पीछा छूटे ! नहीं नहीं, गलती की, यह दूर करने लायक नहीं, यह तो कंठ में धारण करने योग्य चीज़ है।" (पं० पद्मसिंह शर्मा के पत्र संख्या ३८ से उद्धृत)। शर्मा जी के पत्रों में कहीं-कहीं बड़ा सुंदर व्यंग्य होता है। एक स्थान पर वे लिखते हैं:- "......के शास्त्री परीक्षोत्तीर्ण होने का हाल पढ़ कर हमें भी आश्चर्य हुआ,.....को मैं खूब जानता हूं। मेरी कांगड़ी की स्थिति के समय यह वहां था, उस समय उसमें वैलक्षण्य नहीं था, जैसा इसके साथियों की दशा थी वैसा ही प्रायः इसकी थी। इसके पश्चात् फिर सिकन्दराबाद में भी देखा, तब भी वहां के अध्यापक आदिकों से कुछ विशेषता प्रकट नहीं हुई थी। ऐसी दशा में सहसा शास्त्री पास कर लेना आश्चर्यवह है । इसके अतिरिक्त इस साल पंजाब से एक और महाशय शास्त्री
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