द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र जाय। मुझे अपने जीवन में यह साल भी याद रहेगा। आपने अनेक ग्रन्थरत्न दिखला कर मुझे आप्यायित कर दिया है। और आपके इस अपूर्व अनुग्रह ने मुझे अपना क्रीतदास बना लिया है। आपके जीवनचरित में वही कुछ रक्खा है, जिसके लिए जीवनचरित लिखे जाते हैं। यदि किसी अन्य सुयोग्य पुरुष ने इस ओर ध्यान न दिया तो मैं ही टूटे फूटे शब्दों में लोगों के पास तक उसे पहुंचाने का प्रयत्न करूंगा। पर आप उसके लिए कुछ सामग्री तो प्रस्तुत कीजिए। कृपया नोट्स लिखने के लिए कुछ समय निकालिए। ___आपके कोई सन्तति नहीं, यह मालूम करके बड़ा खेद हुआ। क्या किया जाय। ईश्वर की इच्छा। परन्तु आपकी मनोहारिणी कविता हिन्दी का उपकृत साहित्य, आपके यशःशरीर की यादगार क्या कुछ कम है ? "जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः। नास्ति येषां यशःकायं जरामरणजंभयम् ॥" जौक ने भी कहा है- "रहता सुख नसें नाम कयामत तलक है जौक। औलाद से तो है यही दो पुश्त चारं पुश्त॥" . मराठी की जिन दो पुस्तकों के विषय में लिखा था, उनमें से एक आपकी सेवा में भेजता हूँ। उसे देखिए। इसका अनुवाद ठाकुर साहब कराना चाहते हैं। वे कहते हैं कि इसमें जो पद्य हैं उनका अनुवाद भी पद्य में ही हो। जिस अंग्रेजी ग्रन्थ का यह अनुवाद है यदि वह आपके पास न हो तो मंगा लीजिए। मूल्य ठाकुर साहब देंगे। दूसरे पुस्तक के लिए पूना को लिख दिया है आने पर वह भी भेज दी जायगी। रीडर्स के लिए मैंने इंडियन प्रेस को लिखा था। परन्तु वहाँ नहीं मिलती। आप उनसे कहिए कि हिम्मत करके उनकी १००-२०० कापियां छाप डालें। पुस्तकें बिकने लायक हैं। जरूर बिकेंगी। मराठी पुस्तक के साथ 'शिक्षा सरोज' का गुटका भी भेजता हूँ। रीडर्स की नज्मै नकल करके पीछे से भेजूंगा। पट्टी भेजने में बिलम्ब के लिए फिर क्षमा प्रार्थी हैं। हम कई आदमियों ने मिलकर रावलपिण्डी से पट्टियां मंगाई थीं परन्तु अभी तक नहीं पहुंची। अब उनकी प्रतीक्षा न करके, अमृतसर से लाकर काम चलाएंगे। तीन चार दिन में स्वयं अमृत- सर जाने का विचार कर रहे हैं। तभी पट्टी भेजी जायगी। रावलपिण्डी से पट्टियां
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