5 द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र ओम् जालन्धर शहर १-१०-०५ श्रीमत्सु प्रणतिपुरःसरं निवेदनम् श्रीमान् का कृपापत्र मिला, और पुस्तकें भी मिलीं। इस अनुग्रहातिशय और कृपातिरेक के लिए कोटिशः धन्यवाद। भाषा और व्याकरण को मैंने कई बार पढ़ा, ध्यान से पढ़ा। आपकी आज्ञापालन के अर्थ मैने प्रयत्न किया कि उसमें विशेष स्थल पर कुछ अपनी सम्मति दूं। परन्तु मैंने उसकी प्रत्येक बात अपने मत के अनु- कूल पाई। यही नहीं किन्तु आपके लेख का प्रत्यक्ष मुझे कुछ ऐसा मोहित कर लेता है कि उसके प्रतिकूल कुछ सूझता ही नहीं। उसमें कही गई बात मुझे अपनी ही बात मालूम देने लगती है। सचमुच आपकी लेखनी में एक अपूर्व और अद्भुत शक्ति है। गालिब का यह शेर आपके ही लेखों पर चरितार्थ होता है- "देखना तकदीर की लज्जत कि जो उसने कहा, मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है।" व्याकरण और भाषा में दो तीन जगह मैंने कुछ चापल्य किया है। एक तो 'अथ शब्दानुशासनम् । यह प्रतिज्ञासूत्र नहीं किन्तु अधिकार सूत्र है। इस सूत्र पर महाभाष्य में लिखा है- "अथेत्ययंशब्दो धिकारार्थः प्रयुज्यते, शब्दानुशासनं . नामशास्त्रमधिकृतं वेदितव्यम्।" "संज्ञा' च परिभाषाच विधि' नियम एवच । अति देशोऽधिकारश्च' षड्विधं सूत्रमुच्यते॥" इस कारिका में भी 'परिभाषितैनियम सूत्र' नहीं आया है। द्वितीय एक स्थान पर “ऐश्वरीय" शब्द है। वहाँ “ईश्वरीय" चाहिए, क्योंकि 'छ' प्रत्यय होने पर वृद्धि नहीं होती। यथा-स्वर्गीय, देवदत्तीय इत्यादि। तीसरा शब्द अनुग्रहीत है, वह अनुगृहीत चाहिए। बस। ____ एक प्रार्थना और है। इस निबन्ध में किसी स्थान पर इस विषय पर और लिख दीजिए कि बहुत से लेखक संस्कृत व्याकरण के अनुसार दूसरी भाषा के शब्दों में भी पर सवर्ण, षत्व और ‘णत्व'का विधान कर देते हैं, जो अनुचित है। यथा- 'अनुजुमन, की जगह 'अज्जुमन्' इन्जील की जगह इज्जील इत्यादि लिखते हैं।
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