पं० पद्मसिंह शर्मा जी के पत्र द्विवेदी जी के नाम से, यह लिखकर उन्होंने लिखा है कि 'इत्यालोच्य समवेता शार्मण्यपण्डितेन सन्तोष्टव्यम्' परन्तु सेठ जी ने शंका मात्र लिखी है, उसका समाधान छोड़ दिया। . पण्डित जी! संस्कृत कवियों के जीवनचरित्रविषयक जिस 'प्रबन्ध कोष' का उल्लेख पं० दुर्गाप्रसाद जी ने कई स्थलों पर किया है, क्या वह आपने देखा है ? कहीं वह छपा भी है ? . 'स्वाधीनता की भूमिका' पढ़कर हर्ष हुआ। परन्तु साथ ही यह पढ़कर खेद भी हुआ कि- . "बहुत सम्भव है कि हमारी यह पुस्तकें 'बे छपी ही रह जायं, हाँ! अपने देश के धनिकों की विद्या विषय में बद्धमुष्ठिता देखकर महात्मा विदुर की यह उक्ति स्मरण हो आती है-"द्वावाम्भसिनिवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढा शिलाम्। धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम् ॥" क्या सचमुच ही पुस्तक न छपेगी? बेकनविचार-की तरह किसी पुस्तक विक्रेता को ही उसे दे डालिए। छपाइए अवश्य।. अत्यन्त विनीत शिष्य भाव से एक जिज्ञासा है, यदि इसमें किसी प्रकार धृष्टता की गन्ध भी हो तो हम क्षमा प्रार्थी हैं। आपका मत है कि 'जब' के साथ 'तब' का प्रयोग होना चाहिए' 'तो' का नहीं। परन्तु उर्दू के प्रसिद्ध कवि गालिब ने इसका प्रयोग इस प्रकार किया है- "यह कह सकते हो हम दिल में नहीं है? पर यह बतलावो। कि जब दिल में तुम्हीं तुम हो तो आंखों से निहां क्यों हो?" और इस प्रकार के महाविरे हिन्दी और उर्दू में यकसा ही होने चाहिए। जुलाई की सरस्वती में (पं० मथुराप्रसाद जी की जीवनी में) कई स्थान पर पाठशाला शब्द का प्रयोग पुंल्लिग में किया गया है। इस पर सरस्वती के एक पाठक जो (क० महाविद्यालय के मुख्याध्यापक हैं) पूछते हैं कि ऐसा क्यों किया गया उन्हें क्या उत्तर दिया जाय? . आपकी चिट्ठी अभी विद्यालय की कमेटी में पेश नहीं हुई। उसकी चर्चा तो मेम्बरों में हो गई है, आगामी अधिवेशन में शायद वह पेश होगी। यह बात मुझे कमेटी के दो सभ्यों से विदित हुई है, जिनसे मेरा विशेष परिचय है, वे यह भी कहते हैं इसका कुछ सन्तोषजनक फल नहीं होगा। अस्तु, जो कुछ हो। प्रतीक्षा तो करनी ही चाहिए। श्रीमत्कृपापात्रम् पद्मसिंह
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