द्विवेदीयुग के साहित्यकारों के कुछ पत्र (८) ओम् जालन्धर शहर श्रीमत्सु परमश्रद्धास्पद-सुगृहीतनामधेयेषु प्रणतयः समस्तीपुरवाला कृपापत्र मिला। अनुगृहीत किया। ठीक है, पं० दुर्गाप्रसाद जी ने जिन.सहारों से कामसूत्र छपा डाला वे आपको साध्य नहीं। परन्तु लाहौर में एक गुलामनबी हकीम है। उन्होंने इस विषय पर उर्दू में ८-१.० पुस्तकें लिखी हैं। उनमें जननेन्द्रिय आदि के चित्र भी दिये हैं। उनमें बहुत सी ऐसी बातें भी हैं जो सामान्य दृष्टि में अश्लील प्रतीत होती हैं। सर्वसाधारण में उनका प्रचार है। अब तक उनकी कई आवृत्तियाँ निकल चुकी हैं। यदि आप उन्हें देख कर इस बारे में कुछ निश्चय करना चाहें तो मैं अपने एक मित्र से वे पुस्तकें आपके पास भिजवा दूं? इससे मेरा यह अभिप्राय नहीं कि आप तरुणोपदेश को अभी छपा डालें। किंतु कभी न कभी वह छपना अवश्य चाहिए। जब उर्दू तक में इस प्रकार की एक नहीं अनेक पुस्तकें हैं तब हिन्दी का इस विषय से शून्य रहना ठीक नहीं। ___ अगस्त की सरस्वती में 'कुमुदसुन्दरी' आपकी ही अलौकिक प्रतिभा का फल प्रतीत होती है। और किसी को काहे को यह दूर की सूझने लगी है:- "इसके भृकुटी भय का मारा, लोप शरासन है बेचारा।" अहा! क्या विचित्र उक्ति है ? कैसा सरस काव्य है ? इन्द्रधनुः तो इस भृकुटी भय से छिपा ही रहता है परन्तु कहीं भारतवर्ष से धनुर्विद्या इसी के भय से तो लुप्त नहीं हो गई ? कदाचित् आजकल धनुः इसीलिए दिखलाई नहीं देते, पहाड़ों में भीलों के पास मुंह छिपाये पड़े हैं !!! धन्य हो कवे! __'माघ' वाले लेख में मुझे एक शिकायत है। वह यह कि आपके नोटों को छोड़ कर प्रायः सब लेख म० म०पं० दुर्गाप्रसाद जी के लेख का (जो निर्णय सागर वाले माघ की भूमिका से छपा है) अनुवाद मात्र है। परन्तु सेठ जी ने उनका नाम नहीं दिया। इसके सिवा 'तावद्भा भारवेः” पद्य पर तारानाथ के 'इत्युद्भटः' कथन पर जो क्लाट साहब की शंका है, उसका समाधान पं० दुर्गाप्रसादजी ने 'वाचस्पति कोश के ही प्रमाण से यह किया है कि यहाँ पर उद्भट शब्द कविविशेष का बोधक नहीं। किंतु 'अज्ञातकर्तृनामा श्लोक' से तात्पर्य है, अर्थात् 'स्फुट' श्लोक
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