पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/९३

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दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता वार्ता प्रसग-२ बिरह-ताप होई । तब श्रीपादुकाजी को टेरा खोलि के देखे, तो श्रीगुसांईजी बैठे हैं। सो पोथी देखत हैं।.सो. श्रीगुसांईजी सब वार्ता करते। पाछे श्रीगुसांईजी की कृपा तें अजवकुंवरि कों साक्षात् श्रीगोवर्द्धननाथजी हू दरसन देन लागे। सो श्रीगोवर्द्धन- नाथजी आप. वासों वातें करें, चोपड़ खेलें । हास्यादिक करें। सो ऐसे नित्य दरसन देहि । जा दिन दरसन न होइ ता दिन जल-पान न करे, परि रहे । ता पार्छ श्रीगोवर्द्धननाथजी जव पांव धारे तब दरसन करे । ता पाछे जो-कछु नौतन नौतन सामग्री सिद्ध करि कै राखती सो श्रीनाथजी को भोग समर्पे । भावप्रकाश-~-यामें यह जतायो, जो-गुरु में अलौकिक बुद्धि दृढ़ होइ तो ठाकुर को सानिध्य आपही ते होई । ठाकुर इनके आधीन होंई रहे । सो एक समै श्रीगोवर्द्धननाथजी काहू वैष्णव के घर अटके। सो इहां आइ न सके । सो दूसरे दिन राजभोग-आति पाछे श्रीगोवर्द्धननाथजी पधारे । तव देखे तो अजवकुंवरि बाई धनी व्याकुल हैं। ता पाछे श्रीगोवर्द्धननाथजी हँसे, खेलें। भोग धरयो सो आरोगे । ता पाछे जान लागे। तब अजवकुंवरि बाई ने कह्यो, जो - हों तो जान न देउंगी। तब श्रीगोवर्द्धन- नाथजी ने कह्यो, जो-अब तो गए बिनु काम चले नाहीं । जबलों श्रीगुसांईजी विराजे हैं। तबलों तो जानो और आवनों ही बनेगो । तदुपरांति समय पाय बोहोत वर्ष लगि तेरे ही पास हों सिंहाड में यह तेरी कोठरी में ही बेठोंगो, इही ही रहूंगो। यह स्थलं छोरि कै कहूं न जाउंगो। तब प्रसिद्ध सबन को दरसन इहाई देउंगो। तब अजबकुंवरिबाई ने कयो, जो-तम्हारो कैसो भरोसो ? तुम्हारे भक्त अनेक हैं ?