अजवकुंवरि बाई, सिंहाड की निवेदन करवायो चाहिए। ता पाठे श्रीगुसांईजी ने विधि पूर्वक आत्मनिवेदन करवायो । पार्छ सर्व मार्ग की रीति सिखाई । ता पार्छ श्रीगुसांईजी को घनो आग्रह कर के दिन चारि राखे । भली भांति सों सेवा करी । भली भांति सों सामग्री रसोइ करावती। ता पाछे श्रीगुसांईजी विजय करिखे कों विदाय भए सो चले । तव तुरत ही अजब कुंवरि वाई को विरह उपन्यो । सो अत्यंत आरति भई । प्राणांत होन लाग्यो। तव दासी ने दोरि के श्रीगुसांईजी सों पुकारि कै विनती कोनी, जो-महाराज ! अजवकुंवरि वाई के तो प्रान जात हैं। यह सुनि के श्रीगुसांईजी पाछे पांउ धारे । तव अजवकुंवरि वाई ने श्रीगुसांईजी के चरनस्पर्स करे, तब साववान भई । तव श्रीगु- सांईजी सों विनती करी, जो - महाराज! राज के दरसन विनु मोते रह्यो नहीं जात है। मेरे प्रान रहेंगे नाहीं । तव श्रीगुसांईजी अपनी पादुका पधराय दिये। और श्रीमुख सों कहे. जो-तोको जब विरह-ताप होइ तब इनकी दरसन करियो । सो तोकों मेरे दरसन होइंगे। ता पाछे कहे, जो - तु जेसी मेरी सेवा करी याही रीति सों सदा त इनकी सेवा कीजो। ऐसे सब बात कहि के सिखाइ के ता पाळं आप विजय कियो । तब अजवकुंवरि बाई ने बोहोत भेंट करी । ता पाजें श्रीगुसांईजी गुजरात पधारे । ता पानें अजवकुंवरि बाई पादुकाजी की सेवा करन लागी । सो प्रेम संयुक्त सब काज करे । सेवा भली भांति सो मार्गकी रीति सों करे । सो श्री- पादुकाजी सब सानुभावता जनावे. बातें करें । मो जब श्रीगुसांईजी को दरसन न होइ तब अजयकुंवरि बाई को
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