अजब कुंवरिवाई, सिंहाड की ७९ प्रभु वेगि प्रसन्न होई । और वैष्णव को धर्म ऐसो कठिन है. सो हु जनाये । जो-साड़ी वैचि के सामग्री ल्याए । परि श्रीठाकुरजी अपने सेवकन की लाज क्यों खोवें ? तातें ताही कोठी में आप दरसन दीने । तातें वैष्णवन को अपने प्रभुन ते साँचौ रहनो। तब श्रीप्रभुजी आप ही कृपा करें। तातें उन ने या भांति अपनो धर्म राख्यो। सो वे स्त्री-पुरुष श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपापात्र भगवदीय हते । तातें इन की वार्ता को पार नाहीं, सो कहां ताई कहिए। वार्ता ॥९७॥ अय श्रीगुसांईजी की सेबकिनी अजय कुंवरि बाई, मेघाड में सिंदाड गाम है तहां रहती, तिनको घार्ता को भाष कहत है- भावप्रकाशः-ये राजस भक्त हैं । लीला में इन को नाम 'रूप-आधिनी' है। ये श्रीठाकुरजी के रूप में आसक्त हैं । तातें श्रीठाकुरजी को वियोग सहि सकति नाहीं । ये 'सुभगा' ते प्रगटी है. तातें उनके भावरूप हैं। घार्ता प्रसंग-१ सो वह अजव कुंवरि वाई वाल विधवा हती। सो मीरां- वाई के पास रहती । सो मीरांवाई अजव कुंवरि वाई के गाम सिंहाड में रहती । और मीरांवाई के दूसरी सिंहाड हुती। परि अजव कुंवरि वाई और मीरांवाई एक गाम घर में रहती। सो एक समै श्रीगुसांईजी सिंहाड पधारे। तब बाग में उतरे । तव मीरांवाई दरसन को गई। तब अजब कुंवरि ह साथ गई। तब श्रीगुसांईजी को अजब कुंवरि ने साक्षात् पूरन पुरुषोत्तम देखे । तब मन में आई, जो - हों इनकी मेवकिनी होऊ तो भली है । पाछे भेंट घरि के दरसन करि के तुरत ही मीरांबाइ तो फिरी । तब श्रीगुसांईजी ने कही. जो - यह भंट तो हम नाही राखे । हमारे काम की नाहों।
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