७८ दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता आपुस में वहनि-भाई हैं। तब वह पुरुष अपनी स्त्रीके पास गयो। और कह्यो, जो- वैष्णव, तो बिना महाप्रसाद नाहीं लेत। तू आवेगी तव लेइंगे। तब स्त्रीने कही, जो- भगवान और भगवदीय तो एक ही स्वरूप हैं । इन में कछु भेद नाहीं है । जो- मैं नग्न हो । सो भगवान तो देखत है तो भगवदीयन की कहा लाज है ? मैं आउंगी। तब वह स्त्री कोठी में सों निकसन लागी । तव इतने ही में श्रीस्वामिनीजी आप साड़ी लेकै पधारे। तव श्रीठाकुरजी आप कहे, जो - तुम कहां जाति हो ? तव श्रीस्वामिनीजी कहे, जो - अपनी सेवा करत हैं तिनकी लाज जाति है । तातें आपुन लाज न राखेंगे तो कौन राखेगो ? तव जुगल स्वरूप में वा कोठी में ही दरसन दीनो । तव श्रीस्वामिनीजी ने तो साड़ी पहराई । और श्रीठाकुरजी ने अपनो पितांवर उदायो । और वाही कोठी में जुगल स्वरूप के दरसन भए । पाछे वह स्त्री कोठी में तें आइ कै सव वैष्णवन को श्रीकृष्ण- स्मरन करि के महाप्रसाद की पातरि परोसन लागी। और सबन कों बैठारे । तब उन वैष्णवन ने महाप्रसाद लियो । पाठे रात्रि को उहांई रहे। तब सब कार्य तें पहोंचि के ये स्त्री-पुरुष हू तहां आय बैठे । सो सबन मिलि के भगवद्वार्ता कीर्तन किये । पाछे सब वैष्णव जब सोये तब उन स्त्री-पुरुष मिलि कै सवन के पांव दाबन बैठे। पाछे प्रातःकाल भयो तब वैष्णव उन स्त्री-पुरुष सों बिदा होंइ कै श्रीकृष्ण-स्मरन करि कै चले । सो श्रीगोकुल में आये । भावप्रकाश-यामें यह जताये, जो -वैष्णवन में अलौकिक बुद्धि राखे तो
पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/८७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।