७३ । रेडा उदंवर वामग माला बंटी में करि कै दियो । कह्यो, जो - सेवा में राखियो,। और सेवा भली भांति सों करियो । और एक पुत्र को वंस चल्यो जायगो। यह कहि के रेंडा वह श्रीगुसांईजी की मोहोर लेकै तहां तें चले । सो रात्रि दिन कल न परे । ऐसी आरति श्रीगुसांईजी के दरसन को भई । सो कछुक दिनम रेटा श्री- गोकुल आय श्रीगुसांईजी के दरसन किये । सो श्रीगुसांईजी गादी-तकिया पर विराजे हते । तव रंडा आय के श्रीफल आगे धरि दंडवत् किये । तव श्रीगुसांईजी रेंडां के ऊपर वोहोत प्रसन्न भए । पृथ्यो, जो-रेडा तरो व्याह भयो ? तब रंडा ने विनती करी, जो - महाराज ! व्याह भयो। और एक लरिका हु भयो । और यह एक मोहोर आप ने वीरा में धरि के दीनी हती. सो राखो। पाछे कह्यो,जो-महाराज ! हम तो जीव हैं। कई लोभ करिके आप की मोहोर खरच करते तो हमारो सगरो धर्म नष्ट होई जातो। तातें आप को मोहार धरनी ऊचित नाही हती। तब श्रीगुसांईजी कहे. जो - हमकों विस्वास हैं। जो - वैष्णव हमारे द्रव्य त डरपत रहेगा। और मोहोर तो याके लिये धरि दीनी हती. जो - मोहोर के मिप सों श्रीगोकुल की सुधि वारवार आवेगी । तर आति होइगी । तब आरति भए तें भगवद् धर्म वढेगा । तब रेडाने विनती कीनी. जो - महाराज ! हम तो अज्ञानी जीव है। आप करत हो सो भलोही करत हो । अब तो आप के सरनि आयो हुँ । अब आप हम को कहं मति पठावो । अपने वरन के निकट राग्यो । तब श्रीगुसांईजी कहे, अव तोकों कई न पठावेंगे। अब तुम वृद्ध भये. जो - मेवा बने मो करो।
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