७२ दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता ताके दूसरे दिन श्रीगोकुलनाथजी श्रीगोकुल तें पधारे, गुजरात । सो कपडवनज में पधारे । तव रेंडा ने प्रथम सों सब समाचार श्रीगोकुलनाथजी आगें कहें । तव श्रीगोकुलनाथजी रेंडा के घर पधारे । उह फूलमाला के दरसन करे । नेत्र सों लगाए । पाछे रेंडा ने श्रीगोकुलनाथजी सों विनती करी, जो राज ! स्त्रीकों और पुत्र को ब्रह्मसंबंध करावो । तव श्रीगोकुल- नाथजी स्त्री और पुत्र को ब्रह्मसंबंध कराये । और वह रेंडा की ज्ञाति कौ ब्राह्मन घर में रहत हुतो। सो रेंडा के संग तें उन हू के मन में आई, जो - हम श्रीगोकुलनाथजी के सेवक होइ । तब उन रेंडा सों कह्यो, जो - तुम हमारी ओर तें श्रीगोकुल- नाथजी सों विनती करो। जो हम हू को अंगीकार करे । तब रेंडा ने उन ब्राह्मन सों कही, जो-तुम हमारे संग चलो। तब ब्राह्मन दस-पांच मिलि कै रेंडा के संग चले । सो रेंडा ने श्रीगोकुलनाथजी सों बिनती कीनी, जो - महाराज ! इन ब्राह्मनन को कृपा करि कै नाम दीजे । तव श्रीगोकुलनाथजी उन को न्हवाय कै नाम सुनाये । पाछे श्रीगोकुलनाथजी श्री- द्वारिका पधारे । तब रेडा ने अपनी स्त्री सों कह्यो, जो- अब मैं श्रीगोकुल जात हों। तब रेंडा ने अपनी स्त्री सों कह्यो, जो - मैं अकेली कैसें रहूंगी ? मैं तिहारे संग चलोंगी। तब रेंडा ने स्त्री सों कह्यो, जो- तू अब मेरे पाछे मति परे। एक पुत्र है, सो तेरो वंस चल्यो जायगो । तू सेवा भली भांति सों करियो । अब मोसों सेवा नाहीं होंई आवत । तातें श्रीगुसांईजी के घर जाइ रहुंगो । तब स्त्रीने कही, जाऊ । तब रेंडा ने श्रीठाकुरजी को अपनी स्त्री के माथे पघराय कै
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