रामदास खंभाइच के अपने भाग्य को सराहन लागे । और इहां श्रीगुसांईजी स्नान करि पर्वत पर पधारे । सो सागघर में आए । सो रामदास को देखे नाहीं। तब श्रीगुसांईजी आप फलफूल की सेवा किये । पाठे सागघर की सामग्री लेके आप मंदिर में पधारे । और रामदास के मन में वडो भय भयो, जो - देखो! आज ही तो सागघर की टहल मिली और आज ही मंदिर में नागा भई । सो श्रीगुसांईजी आप निश्चय खीझेंगे। पाठे रामदास वेगि वेगि सव पात्र समेटि अपरस में न्हाय मंदिर में आए । सो भोग के दरसन खुले हते । सो दरसन किये । ता पाठे श्रीगुसांईजी संध्या-आरति करि श्रीनाथजी को सिंगार वड़ो करत हते । तब श्रीनाथजी श्रीगुसांईजी सों कहें. जो - रामदास मेरे संग गुलाल कुंड आयो हतो। सो वासों तुम कछु मति कहियो । पाछे श्रीगुसांईजी सेन-भोग धरि वाहिर पधारे । तव रामदास को बुलाय एकांत में कह्यो, जो- रामदास ! तुम्हारे बड़े भाग्य हैं । जो - तुम को आजही टहल मिली और आज ही श्रीनाथजी कृपा किये। तब रामदास विनती किये, जो-महाराज ! सब आप की कृपा तें भयो है । नाँतरु हों कहा लाइक हतो? तब श्रीगुसांईजी आप रामदास सों आना किये. जो - आज पाछे तुम श्रीनाथ- जी की आजा में रहियो । श्रीनाथजी तुम को जहां ले जाँड़ तहां जेयो। हम सागघर में दूसरो मनुप्य राखेगे । और तुम को अवकास मिलें तब तुम सागघर की सेवा करियो । तब रामदास प्रसन्न व्हें कह, जो-महाराज ! आपकी आज्ञा में
पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/७०
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।