५८ दोसौ वावन वैष्णवन की वार्ता पर्वत ऊपर पधारे । सो श्रीनाथजी को जगाय मंगल-भोग धरे । ता पाछे समै भए भोग सराय मंगला-आरति किये। पाठे सिंगार किये। ता पाछे रामदास को बुलाय ब्रह्मसंबंध कराये। तब रामदासने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो महाराज! अव कहा आज्ञा है ? तब श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो - रामदास ! छह महिना और हू तू दंडवती सिला आगें वैठि पंचाक्षर को जप करि । तव रामदास ने वाही प्रकार छह महिनाला पंचाक्षर कौ जप कियो । पाठें रामदास श्रीगुसांईजी पास आय दंडवत् किये । तब श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो - अव तेरो मन सुद्ध भयो है। तातें और ठौर भटकेगो नाहीं। तव रामदास विनती किये, जो - महाराज ! अव कछु सेवा दीजिये । तब श्रीगुसांईजी रामदास को सागधर की सेवा सोंपे । सो जा दिन रामदास सागघर की सेवा में न्हाए ताही दिन श्री- गोवर्द्धननाथजी रामदास के पास पधारि रामदास को आज्ञा किये, जो- रामदास! हम 'गुलाल कुंड' पैं पधारत हैं । सो तू सीतल भोग की सामग्री लेकै बेगि अइयो । तव रामदास बेगि बेगि फलफूल सिद्ध किये । ता पाछे सीतल सामग्री सिद्ध किये । सो एक टोकरा में आछी भांति धरी । पाछे गुलाल कुंड आए । तब श्रीगोवर्द्धननाथजी आपु रामदास सों कहे, जो - रामदास ! सामग्री ल्यायो ? तब रामदास विनती किये, जो - महाराज ! ल्यायो हूं। पाछे रामदास गांठि खोलि सब सामग्री आगे धरे । तब श्रीगोवर्द्धननाथजी सखा-मंडली समेत आरोगे । सो दरसन रामदास को भयो। सो रामदास
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