पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/५२

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तीन तूंबाबालो वैष्णव ब्राह्मण ४३ माता - पिता जाने, जो - यह कोई लौकिक बालक नाहीं । तातें कल कहे नाहीं। यह बालक कह खान - पान करे नाहीं । गाँइ को दुध पी के रहे । ऐसें करत यह बरस पंद्रह को भयो । तब श्रीगुसांईजी सिद्धपुर पधारे । सो सरस्वती स्नान कों पधारे । तब यह बालक सरस्वती में स्नान करत हतो । सो इनकों श्रीगुसांईजी के दरसन भए । सो साक्षात् पूरन पुरुषोतम के दरमन भए । तर यह विरक्त श्रीगुसांईजी सो दोऊ हाथ जोरि विनती कियो, जो - महागज ! मैन आपको पहिचाने हैं। सो अब कृपा करि मोकों सरनि लीजिये । बोहोत दिन भए विछरथो हूं । आप के दरसन आज पाए । तब श्रीगुसांईजी कहे, जो-तू देवी जीव है। तातें तोकों अंगीकार करिवे को यहां आए हैं। सो त जलही में ठादो रहे । हम तोको जलही में नाम निवेदन कराइ सरनि लेइंगे। पाछ श्रीगुसांईजी आप सरस्वती में स्नान करि वाको जलही में नाम - निवेदन कराये । सो निवेदन होत ही याको सब लीला स्फुर्द भई । स्वरूप हदयारूढ भयो । तब श्रीगुसांईजी आज्ञा किये, जो - तोको निरोध सिद्ध भयो। अब तोको माया बाधा करेगी नाहीं । तातें तू रसोइ करि भोग धरि महाप्रसाद ले । और चाहे जहां रहि । तोको देस काल ह वाधा करेगो नाहीं । पाछे श्रीगुसांईजी आप तो द्वारकाजी रनछोरजी के दरसन को पधारे। और यह विरक्त दसा में विचग्न लाग्यो । चुकटी ल्याय रसोइ करि भोग धरि प्रसाद लेई । तब इन के मा-बाप कह्यो, जो - बेटा ! तो तु अन्न खात है, तातें अपने घर में जयो करि । अलग रसोइ काहे को करत है ? तब इन कन्यो, जो - ही तो विरक्त हो । मेरे तुम्हारे का संबंध नाहीं । तातें मेरे में ममता मति करो । नाँतरु दुःख पायोगे । इतनो कहि यह विरक्त तो घर तें निकसि गयो । सो अष्टाक्षर मंत्र को निरंतर जप करे । एक ठौर कहूँ रहे नाहीं । सदा भगवल्लीला के आवेस में छक्यो रहे । काह सों कह बोले नाही । या प्रकार रहे । अब खाता प्रसग--१ सो एक समे वह विरक्त श्रीनाथजी के दरसन को गुजरात ते आवत हतो । ताके पास तीन तंबा. कांधे पर तो खासा की. पीछे कटि पर मर्यादी मेवकी को, आगे कटि पर बाहिर की. या भांति सो रहे आवें । सो जहां गाम जाँड तहां चुकटी मांगि कै रसोई करि श्रीठाकुरजी को भोग धरि .