पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/५०

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४१ एक धनिया, गुजरात का चलि । सो वह अपने बेटान सहित अपनी स्त्री तथा वह कों साथ लेके श्रीगुसांईजी के पास जाँई के नाम पाइवे की विनती कियो । तव श्रीगुसांईजी कृपा करिकै उन सवन को नाम दिये। पाछे वहूने निवेदन की विनती कीनी । तव श्रीगुसांईजी वाकों निवेदन कराए । ता पाछे और सबनने निवेदन की विनती कीनी । तव उन को एक व्रत कराई निवेदन कराये। तब वहूने फेर विनती करके कह्यो, जो-महाराज! अव कछु सेवा पधराइ दीजिए । तव श्रीगुसांईजी वाको श्रीनवनीतप्रियजी के वस्त्र की सेवा पधराये । तब वह वह सेवा पधराइ, अपने घर आई । सो वहू के पाछे सब कुटुंब ने नाम-निवेदन पायो । ता पाछे गाम के और ह लोग वैष्णव भए, या भांति । पाछे दूसरे दिन श्रीगुसांईजी को सवन विनती करि कै उहां राखे । सो अपने अपने घर श्रीगुसांईजी को पधराय के विनती करि के भेट धरी। या प्रकार श्रीगुसांईजीने वा वैष्णव की बेटी की कानि तें उन सवन को अंगीकार कीने । तब वह लरिकिनी को दुःख गयो। या प्रकार श्रीठाकुरजी वाको दुःख सहि न सके । तातें थोरेसे दिन में वाकौ दुःख दृरि कीनो । पछि श्रीगुसांईजी दूसरे दिन द्वारिका को पधारं । पाठे लरिकिनी ने अपनी सास सों कह्यो. जो-अव हों रसोई करूंगी। तर सासने कह्यो, जो-भलेई, तू रसोई करि । पाछे वा लरिकिनी ने घर में ते सब अपरस कादि के रसोई पोति. पात्र सब खासा करि, रसोई सिद्ध करि, पाछे श्रीठाकुरजी को भोग धरयो । पाछे समे भये भोग सरायो। और घर के जो नाम पाए हने तिन सों कह्या. जो-जा प्रकार में करत हो www