पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४८

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३९ एक बनिया, गुजरात का ते पधारे हैं। सो हम सब ब्रजवासी उन के साथ हैं। सो श्रीगुसांईजी आज इहां उतरे हैं। सो आज तो इहां रहेंगे। और सवारे श्रीद्वारिकाजी को पधारेंगे। तव वा लरिकिनी ने वा ब्रजवासी सों कही, जो- मैं तो फलाने वैष्णव की बेटी हों। और मेरे इहां तो मेरो पिता श्रीगुसांईजी को सेवक है । सो मोकों श्रीगुसांईजी के दरसन करावोगे ? मैं तो वैष्णव की बेटी हों। और इहां सुसरारि में तो जैन धर्मी हैं । तातें मोकों तो इहां परम दुःख है। सो श्रीगुसांईजी के दरसन करे त मेरो दुःख निवृत्त होइगो । तव वह लरिकिनी ने उन ब्रजवासिन सों कहि के वह जल को घड़ा तो वा तलाव पर धरि दीनो और आप वा ब्रजवासी के साथ जाँय के श्रीगुसांईजी के दृरि तें दरसन किये । दंडवत् कीनी । तव श्रीगुसांईजी वा ब्रजवासी सों पूछे, जो-यह कौन है ? तव श्रीगुसांईजी सों वा ब्रजवासी ने विनती कीनी, जो-महाराज ! यह तो अमुके वैष्णव की बेटी है । तब वह लरिकिनी श्रीगुसांईजी को दंडवत् करि के पाजें वह तलाव पर आई के जल को घड़ा भरि कै घर आई। सो घर में आइ के सोच करन लागी, जो-अब मैं कहा करों ? तव वाने अपनी सास सों कही, जो-मेरे पिता के गुरु श्री- गुसांईजी इहां पधारे हैं । सो तुम मोकों एक नारियल देऊ । तव वाकी सास ने कह्यो. जो-अरी बहू ! तू कहे तो तेरे साथ आऊं, श्रीगुसांईजी के दरसन को। तब वह ने कह्यो. जो-भलो. तुम हू चलो। तुम्हारी इच्छा हैं तो तुम हू बलो। सो घर ते वे दोउ जनीं एक-एक नारियल ले के सास-बह चली । सो उहां श्रीगुसांईजी के पास गई। तब ब्रजवासिन ने