पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४७

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दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता लरिकिनी वाके घर में जैन धर्म अनाचार भ्रष्ट देखि कै मन में बोहोत दुःख करन लागी। घर में तो सव भ्रष्टाचार । और खाए बिना तो रह्यो न जाँय । तातें उन लरिकिनी ने अपनी सास तें कह्यो, जो-तुम्हें मोकों परोसनो होइ सो एक बेर ही परोस देहु । मैं तो कछु फेरि मांगोंगी नाहीं। तव वाकी सास एक ही बेर वाकी पातरिमें परोसे । तितनो ही वह लरिकिनी चरनामृत मिलाय मैं खाँहि । परंतू दूसरी बेर न कछु खाँय न कछु लेय। या भांति सों निर्वाह करें । सो ऐसे करत वोहोत दिन भए । सो वह लरिकिनी मन में वोहोत ही दुःख करे । और कहे, जो- या आपदा ते श्रीठाकुरजी कव छुटावेंगे। या भांति सों वोहोत ही खेद करे। सो श्रीठाकुरजी तो परम दयाल हैं, भक्तवत्सल हैं। सो वह लरिकिनी कौ दुःख देखि कै श्रीनाथजी ने श्रीगुसांईजी सों कह्यो, जो-वह बनिया वैष्णव की बेटी उह गाम में है। सो वाकौ दुःख मोतें सह्यो जात नाहीं । तव श्रीगुसांईजी उह लरिकिनी कौ दुःख जानि कै थोरे से दिन में वह गाम में पधारे। सो वा गाम के वाहिर तलाव हतो। सो वा तलाव के ऊपर.श्रीगुसांईजी ने डेरा किये। तब ता दिना वह बनिया वैष्णव की बेटी वा तलाव पर पानी भरन को गई हती । तब उहां वा लरिकिनी ने श्रीगुसांईजी के ब्रजवासी देखे । तब उह लरिकिनी वा ब्रजवासी के लिंग ठाढ़ी ठाढ़ी विचार किये । जो-ये ब्रजवासी तो मेरे बाप के घर नित्य आवत हते । तब वह लरिकिनी वा ब्रजवासी के ढिंग आय कै पूछ्यो, जो-तूम कौन हो ? और कहां तें आए हो? तब उन ब्रजबासीन ने कही, जो-श्रीगुसांईजी श्रीगोकुल