एक साहकार, मयुरा का ३५ इतने में वा सेठ के घर भोग आयो । सो सव आंवान की रस ही निकासे । समंगल आम कोई न हतो। तव वजार में सेठ ने मनुष्य पठाये, जो-आम ले आउ। सो वह वैष्णव वैठ्यो हतो तहां आए । तव माली त पूख्यो, जो-आम बेचेगो ? तव उन माली ने कही, जो -आम तो इन वैष्णव ने लिये हैं । तव इन वैष्णव ने उन मनुष्यन सों कही, जो- चहिए तो ले जाऊ । एक रुपैया में ठहराए हैं। तव उन मनुष्यन ने कही, जो-चलो रुपैया हम दिवावें । ऐसें कहि के वे मनुष्य तो आम ले गए। और वह वैष्णव अपने घर आयो। तव सेठ के घर वे आम खासा करि कै श्रीठाकुरजी को भोग धरिवे लगें । तव श्रीठाकुरजी ने सेठ सों कही, जो-ये आम तो फलाने वैष्णव ने अपने श्रीठाकुरजी को धराए हैं । तातें प्रसादी आम तो मैं न आरोगूगो। तव सेठ ने उन वैष्णव को बुलाय के पूछी, जो-ये आम तुमने श्रीठाकुरजी को भोग धरे हैं ? तब उन वैष्णव ने कही, जो धर तो खरे, कहा करें? पास रुपेया नाहीं। तातें ऐसें किये। पाळं वैष्णव-मंडली प्रसाद लेवे वैठी। तब वह एक-एक आम सवन को धरे । पाछे सब महाप्रसाद लेवे लगे । तव वा सेठ के घर की रस-पूरी लेवे लगे। ता पाळं उह समंगल आम लिये । सो वह अत्यंत अली- किक स्वाद लगे। काहेतें. जो वह वैष्णव ने ताप-भाव करि के श्रीयमुनाजी के तट पै श्रीठाकुरजी को आम समर्प । सो उहाई श्रीठाकुरजी ने अति प्रसन्न होई आरोगे। भावप्रकाश-या वार्ता को अभिप्राय यह है, जो - वणव प्रीतिपूर्वक जा ठोर जैसे प्रकार मों श्रीटाकुन्जी को भोग घरत है. ता टौर तसे प्रकार सो श्री-
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