रूपा पोरिया ११९ वा स्वान के रुधिर निकस्यो। परंतु उह स्थान जाँइ नाहीं । तव श्रीगुसांईजी कहे, जो-याको मारो मति। तुम दूरि रहो। ता पाछे श्रीगुसांईजी ज्ञानदृष्टि सों मन में विचार कियो, तब पहचान्यो। पाछे श्रीगुसांईजी आप वा स्थान को चरन-स्पर्स करवाए । और वाके मस्तक के ऊपर चरन धरे । सो श्रीगुसां- ईजी आप वा स्वान के ऊपर वोहोत प्रसन्न भए । ता पाछे श्री- गुसांईजी आप सब वैष्णवन सों कहे, जो- यासों दूरि रहो । इतने ही में वा स्वान की देह छूटी। तव वा स्वान के मुख में तें तेज कौ पुंज निकस्यो । सो श्रीठाकुरजी आप के चरनार- विंद में लीन भयो। ता पाछे श्रीगुसांईजी श्रीमुख तें वैष्णवन कों आज्ञा किये, जो - तुम याकौ संस्कार करि आओ। तुम को कछू वाधक नाहीं। यह मेरी आज्ञा है। ता पाउँ वैष्णवन ने याकों अग्निसंस्कार कियो। ता पाछे फेरि कै श्रीगुसांईजी आप स्लान करि कै श्रीगोवर्द्धननाथजी के मंदिर में पधारे । सो सब सेवा सों पहोंचि कै श्रीगुसांईजी अपनी बैठक में पधारे। सो गादी- तकियान के ऊपर विराजे । तव वैष्णवन ने विनती करी, जो- महाराज! पूर्व जन्म में यह स्वान कौन हतो? और कौन अप- राध तें यह स्वान की जोनि प्राप्त भई ? सो कृपा करि के हम सों कहिए ? तव श्रीगुसांईजी वैष्णवन प्रति श्रीमुख मों कहे, जो-यह पूर्वजन्म में श्रीगोवर्द्धननाथजी को सिंघपोरिया हतो। रूपा पोरिया । सो श्रीगोवर्द्धननाथजी की राजभोग-आरती की वाती करत हतो। सो उह वाती भली भई हती। तब भंडार में जाँइ कै घृत लेइ के तातो करि के ताम वाती हाथ में भी- जोय के ता पा रूपा पोरिया ने मृत्तिका सों हाथ धोय डारे ।
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