४१६ टोमी बापन वैष्णवन की वार्ता धरी । तब श्रीगुसांईजी वा राजाको आना किये, जो - आज महाप्रसाद यहां ही लीजो । ता पाठे आपु भोजन करि के मुग्य सुद्धार्थ आचमन करि के बीड़ा आरोगि के वा गजा को अपने श्रीहस्त मों जूंठनि की पातरि घरी । तब राजा ने महाप्रसाद लीनो। पाठे राजा ने विनती करी.जो - महाराज! अब आजा होंइ तो मैं यहां रहों । तब श्रीगुसांईजी आजा किये, जो - तुम राजा लोग हो। तातें अपने घर जाऊ। अब तुम्हारो कष्ट निवर्त भयो । तव राजा ने विनती करी. जो-महागज ! मेरी बुद्धि न फिरे । आपु के ऊपर रहे । ऐमी कृपा करिये। नत्र श्रीगुसांईजी आप ने वन मॅगाय के अपने चरन रोरी मों छाप दिये । और वा राजा को आजा किये, जो - तुम नित्य इन कों भोग धरि के महाप्रसाद लीजियो । तुम्हारी बुद्धि ठिकाने रहेगी। और वेष्णव के ऊपर ममत्व राखियो। जो - वैष्णव आवें सो तिनकी भली भांति मों मेवा करियो । ता पाळं वा राजा को ले के श्रीगुसांईजी आप श्रीजीद्वार पधारे । तब राजाने श्रीनाथजी के दरसन किये। ता पाउँ राजा आजा मांगि के ब्रज- यात्रा को गयो । सो कितनेक दिन में संपूरन ब्रजयात्रा करि के आयो। तव श्रीगुसांईजी आपु को दंडवत् करी। तब कितनेक दिन ताई श्रीनाथजी के दरसन किए । ता पाठे श्रीगुसांईजी आप सों विदा होइ के अपने देस को चल्यो । सो कितनेक दिन में जाँइ पहोंच्यो। तव आपु की आज्ञा प्रमान त्योंही सेवा करन लाग्यो । और वैष्णवन की सेवा करतो, महाप्रसाद लिवा- वतो। वैष्णव के ऊपर वोहोत ममत्व राखतो और श्रीगुसांईजी तथा श्रीनवनीतप्रियजी की प्रतिवर्प भेंट पठावतो। श्रीनाथजी
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