एक राजा. जानें स्मसान में जूठनि खाई अब श्रीगुमाईजी के लेखक एक राजा, पूरब को. जाने स्ममान में जंठनि बाई, तिनको धार्ता को भाव कहत हैं भावप्रकाश-ये राजम भक्त हैं। लीला में इन को नाम 'सुत्रता है। ये अंतर्गृहगता में है। ये 'मोहिनी' ते प्रगटी हैं, ताते इनके भावरूप है। वार्ता प्रलग-१ सो उह राजा पूरव को हतो । सो वाकों गलित कोढ़ हतो । सो राजाने घने घने वैद्यन कों वुलाइ के औपधि करवाई। और वोहोत इलाज़ करवायो। और जोतिसीन कों बुलाइ पृत्यदान चोहोत किये । और लाखन रुपैया खर्चे । परिवाको रोग न गयो । तव एक ब्राह्मन ने कही, जो - राजा ! तीर्थ- यात्रा करिवे कों निकसो । तब वह तीर्थयात्रा को निकस्यो । सो तीर्थयात्रा करत केतेक दिन में श्रीगोकुल आयो । सो तीर्थ- यात्रा किये, परि रोग न गयो । ता पाछे श्रीगोकुल में आइ के श्रीगुसांईजी को दंडवत् करी । पाछे उह राजा श्रीगुसांईजी के आगें हाथ वांधि के ठाढ़ो रह्यो । तव श्रीगुसांईजी तो परम दयाल अंतरजामी । सो वा राजा के ऊपर दया आई। तब खवास स्रों आज्ञा करी, जो - तू यासों पूछि, जो-तू काहे कों हाथ वांधे ठाडो है ? तव वा खवास ने राजा सों कही. जो-तुम काहे कों हाथ वांधे ठाढ़े हो ? तव राजा ने दंडवत् करी. पाछे विनती कोनी, जो - महाराज! मैं पूर्व में अमूक गाम है तहां रहत हों। और महाराज ! मेरे सरीर में वोहोत रोग उत्पन्न भयो है । और वोहोत वैद्यन को बुलाए और ओषधादि करवाई। तथा ग्रहन को दान-पून्य हू वोहोत कियो । लाखन रुपैया खर्चे । और वोहोत उपाय किये । जो - जाने कह्यो सो सब कियो । परि मेरो रोग न गयो । तव एक ब्राह्मन ने कही. जो - तुम
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