४०८ दागी बावन येणवन की वार्ता श्रीगोवर्द्धननाथजी ने अत्यंत कृपा कीनी। भावप्रकाश-या वार्ता को अभिप्राय यह है, जो प्रभु नाप-श्रानुग्ता देखि बेगि प्रसन्न होत है। तात वैष्णव को ताप गयनो। और प्रीतिपूर्वक कोड रंच हु सेवा करत है ताको प्रभु बोहोत मानन है, यह जनाए । सो यह क्षत्री वैष्णव श्रीगुसांईजी को प्रेमी कृपापात्र भग- वदीय हो। ताते इनकी वार्ता को पार नाही. मी कहां नाई कहिए ? वार्ता ॥१६॥ अव श्रीगुमाइजी को सेयक पर अगमारगी, जाने मRIT में पैटि गाणी तिनको घार्ता की भाव फान भावप्रकाग-ये तामम भक्त है। लीला में इन को नाम कांता है। ये — मोहनी' तें प्रगटी है, तातें उनके भावरूप है। पाता प्रमंग-1 सो एक समय वैष्णव दोइ चारि श्रीगोकुल में इकठोर होंइ कै निरधार करत हुते । जो - भाई ! आज के समय में तो श्रीगुसांईजी को प्रताप ऐसोही है । जो - कोई पापी दुष्ट कर्म करिवे वारो होइ, पाखंडी होइ, परि जो सरनि आवे तिन सवन के पाप दूरि करत हैं। सो उन वैष्णवन में एक अन्यमारगी वैठयो हतो । सो वाने कही, जो-वैष्णवजी ! तुम कहत हो सो साँची वात होंइ तो मैं हू ऐसें दुष्ट कर्म कीने हैं। सो अव मोकों श्रीगुसांईजी की सरनि लिवावो और मेरे पाप दूरि करवायो । तव में जानो, जो ठीक वात है। तव वैष्णवन कही, जो - आज तू हमारे संग चलि । पाछे उह वैष्णव अन्यमारगीय कों संग ले कै श्रीनाथजीद्वार श्रीगुसांईजी के पास आए। पाठे सवन ने दंडवत् करी । और उनन सव समाचार श्रीगुसांईजी आगे कहे, जो - महाराज ! यह अन्यमारगी है। सो आपु सों
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