एक क्षत्री, को ४०७ श्रीगुसांईजी भीतर पधारि कै देखे तो झारी बंटा नहीं हैं। तव श्रीगुसांईजी तो मंगल भोग धरि कै वाहिर पधारे। तब उह वैष्णव श्रीगुसांईजी के दरसन को आयो । तव श्रीगुसांईजी कों दंडवत् करि के झारी वंटा श्रीगुसांईजी के आगे धरे। तब श्री- गुसांईजी ने वा वैष्णव सों पूछी, जो-ए तेरे पास कैसें आए ? तव वा वैष्णव ने हाथ जोरि कै विनती कीनी, जो-महाराज! श्रीगोवर्द्धननाथजी रातिको धरि गए हैं। पाछे सब विधिपूर्वक समाचार कहे । तव श्रीगुसांईजी भीतरिया सेवकन कों आज्ञा किये. जो-यह वैष्णव जा समय महाप्रसाद मांगे सो ता समय देनो। और आपने या वैष्णव सों आज्ञा कीनी, जो-जा समय तोकों भूख लागेताही समय अनसखड़ी महाप्रसाद मांगिलीजो। और तोसों वने सो सेवा करियो। पाठें केतेक दिन रहि कै श्रीगुसां- ईजी आप श्रीगोकुल पधारे। और उह क्षत्री वैष्णव श्रीनाथजी द्वार में रह्यो। सो भली भांति सों स्नेहपूर्वक प्रेम चित्त लगाय के सेवा करतो। श्रीगोवर्द्धननाथजी इनके ऊपर सदा प्रसन्न रहते। सो वा वैष्णव ने भली भांति सों सेवा करी । पार्छ वाकी देह छूटी। तव श्रीगुसांईजी के अनुग्रह तें उन को नित्य लीला में प्रवेस भयो । अलौकिक देह पायो। लौकिक देह परचो रह्यो। अलौकिक देह तं नित्य लीला में प्रवेस कियो। सो भीतरियान ने श्रीनाथजी के मंदिर में वाकों देख्यो। सो श्रीगुसांईजी जब श्रीनाथजीद्वार पधारे तब आप यह वात भीतरियान के मुख तें सुनी । सो सुनि के श्रीगुसांईजी बोहोत प्रसन्न भए। और श्रीमुख तें कहे, जो - प्रभु, थोरी सेवा करे तोऊ बोहोत मानत हैं । और देखो, या वैष्णव के भाग्य ! थोरेसे दिनन में
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