पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/४

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अर्पणपत्रिका सारंग ORCKOVICHWUVklicne ७४.१० " जयति वल्लभ-सुवन, श्रुति उद्धार, फेरि नंद के भवन की केलि ठानी । इप्ट गिरिवरधरन, सदा सेवत चरन, द्वार चारों बग्न भरत पानी ।। १ वेद-पथ व्याससे, हनुमान दाससे, ज्ञान को कपिलसे कर्मयोगी । साधु लच्छमन निपुन, मनहु व्रजगज-सुत, प्रगट सुखरास मानो इन्द्रभोगी।। २ सिंधुसम गंभीर, विमलमन अति धीर, प्रीति को उल-श्रीर. ब्रज-उपासी । ध्यान को सनक से. भक्ति कों फनिगसे, याही ते सद्य किये ब्रज में बासी ।। ३ मनहु इन्द्रियजीति, कृष्ण सों करी प्रीति, निगम की चली नीति अति विसेखी । रहित अभिमान तें, बड़े सन्मानते, सील और दाम गोविंद टेकी ॥ ४ सदा निर्मल बुद्धि, अष्ट सिद्धि नव निघि. द्वार सेवत नहां मुक्ति दासी । 'रामराय' गिरिधरन जानि आयो सनि, दीन के दुःख हरन घोग्य वासी ॥ ५ . ऐसें 'सर्वलक्षण संपन्न', नंदनंदन सम बल्लभ-नंदन के चरणकमलो में आप के तदीय जनों की यह यशगाया सादर समर्पित है। सापके, म्बकीय जन . 2002