एक ब्राह्मन विरक्त वैष्णव, गुजरात को ३९५ ऐते जन्म भए हैं। सो इन के अस्थिन कौ पर्वत भयो है। सो जव कृपा होइगी तव दरसन होइंगे। अजहू ढील है। सो श्री- गोवर्द्धन लीलात्मक भगवत्स्वरूप आनंदमय हैं। सो ऐसे हैं । सो गोवर्द्धन पर्वत आपुन को श्रीआचार्यजी महाप्रभुन आपकी का'नी करि के दरसन देत हैं। परि जीव को ज्ञान नाहीं है । तातें हमने माथा हलायो । जो-श्रीगोवर्द्धन हरिदासवर्य हैं । सो ऐसे कहि कै या वैष्णव के मिष सव वैष्णवन को सिक्षा दीनी । भावप्रकाश-या वार्ता में यह जताए, जो -श्रीगोवर्द्धन पर्वत महा अली- किक हैं। काहेते. जो - उन में सकल लीला विद्यमान हैं। तातें ये आनंदमय भगवत्स्वरूप ही हैं । सो वैष्णव को उनके ऊपर पाँव घरनो नाहीं। भगवत्सेवा, भगवदर्सनाथ ऊपर चढनो परे तो हू दंडवत करि पाठे गेल-गेल जानों। और ठौर पाँव नहीं धरनो । नाँतरु लीलान को अतिक्रम होई । तो जीव लीला तें वाहिर परे। सो वह वैष्णव श्रीगुसांईजी को ऐसो कृपापात्र भगवदीय हतो। तातें इन की वार्ता कहां तांई कहिए । वार्ता ॥१६१॥ अव श्रीगुसांईजी के सेवक एक विरक्त वामन वैष्णव, गुजरात को, तिनकी वार्ताको भाव कहत है- भावप्रकाश-ये सात्विक भक्त हैं । लीला मे इनको नाम 'भाव-निपूणा' हैं। ये श्रीचंद्रावलीजी की अंतरग सखी हैं । 'मधुरा 'तें प्रगटी हैं। ताने उनके भावरूप हैं। ये गुजरात में एक ब्राह्मन के जन्म्यो । सो बालपने सों विरक्त दसा में रहे । सो बरस वीस कौ भयो तब इनके माता-पिता मरे । सो याको व्याह भयो नाहीं। तब ये तीरथ कों चल्यो । सो पहिले मथुराजी में आयो । तहां इनको एक वैष्णव सो मिलाप भयो । सो वह वैष्णव श्रीगुसांईजी को सेवक हुतो, विरक्त हुतो । मो या ब्राह्मनने वासों पूछयो, भाई ! कोई ऐसो महापुरुष है. जो - या जन्म-मग्न की व्याधि ते छुडावे ? तब वा वैष्णवने कह्यो. जो - हां हां ! श्रीविठ्ठलनाथजी गुसाई ऐमें ही हैं। उनके सरनि जाँइवे ने सगगे अनान दृरि व्हं महासुख की प्राप्ति होत है । मैं ह इन को सेवक हूं। जो- तुम्हारी ईच्छा होई नो श्रीगोकुल
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