. . स्त्री-पुरुष, ब्राह्मन, गुजरात के मंग आए । पार्छ पुरुप विनती कियो, जो - महाराज ! कृपा करि हम को सेवक कीजिए | हम आप के सरनि आए हैं। तब श्रीगुमाईजी हँसि के आजा किये. जो - ब्राह्मन ! तुम तो विस्वेस्वरजी के दरसन को आये हो ? मो दरसन क्यों नाहीं किये ? तब पुरुष विनती कियो, जो - महाराज ! आप के दरमन भए पार्छ अब कौन के दरसन करें ? तातें कृपा करि बेगि सरनि लीजिए । तब श्रीगुसांईजी इन की आतुरता देखि दोऊन कों नाम दे के सेवक किये । पाछे दूसरे दिन निवे- दन कराए । तब पुरुष ने विनती कीनी, जो • महाराज ! अब कहा कर्तव्य है ? तब श्रीगुसांईजी आप दोऊन को आज्ञा किये, जो - तुम माहात्म्य प्रीति संयुक्त भगवत्सेवा करो। तब उन विनती कीनी, जो - महाराज ! सेवा को स्वरूप कृपा करि समझाइए तो आछौ । तब श्रीगुसांईजी वाको 'सेवाफल' ग्रन्य पहाए । ता पाछे वाकों सेवा को स्वरूप समझाए। तब पुरुष बिनती कियो, जो - महाराज! कृपा करि भगवत्स्वरूप पधराय दीजिए, तो सेवा करें। तब श्रीगुसांईजी वाकों एक लालजी को स्वरूप पधराय दिये । और आज्ञा किये, जो - निष्कंचन भाव सों परम प्रीति संयुक्त इन की सेवा करियो। पाछे वे दोऊ स्त्री-पुरुष भगवत्स्वरूप पधराइ, श्रीगुमां- ईजी मो विदा व्है अपने देस को चले। सो कछक दिन में अपने घर आए । या प्रसंग-१ सो वे दोऊ निष्कंचनता सों सेवा करते । सो श्रीठाकुरजी की सेवा बोहोत प्रीति-भाव सों करते । सो पुरुष को श्रीठा- कुरजी सानुभावता जनावन लागें। सो ऐसे करत केतेक दिन भए । सो एक दिन श्रीगुसांईजी कौ सेवक एक सेठ, तिन के घर दरसन करिवे को स्त्री गई हती। सो उहां वैभव वोहोत देख्यो। सो देखि कै घर आय के स्त्री न्हाई नाहीं । ओर सोइ रही। तव बाहिर सों वाकौ पुरुप आयो। तव वाने अपनी बीसों कह्यो, जो - तृ सेवा में न्हाई क्यों नाहीं ? तव स्त्री वातें कह्यो, जो आज तुमही न्हाउ । तव पुरुष न्हाय के सेवामों पहोंचि के स्त्री के पास आय के पूछ्यो, जो - तोकों भयो कहा ? तव स्त्रीने कही, जो - मैं तो सेवा तव करूं जव वैभव सों करों।
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