३८० दोमो वान वाणान की वार्ता . भगवद् मंडली में जाता। सो श्रीठाकुरजी मानुभावना जना- वन लागे। भावप्रकाग–याम यह जताण, जी-वण को श्रीगुगाईजी के बगन में विस्वास राखनो। और सेवा भाव-प्रीनि संयन, कन्नी । नो प्रभ, अनुग्रा करि सानुभावता जनायें। सो व प्रेमजी श्रीगुसांईजी की गमा परम कृपापात्र भगव- दीय हतो। तातें इन की वार्ता पार नाही. मा कहां ताई कहिा। वार्ता ॥१५७॥ अब श्रीगुसाईजी के. मेघक वृन्दावन दाम, एमोदाम, भागरे, मिनी घार्ता की भाव कम है भावप्रकाग-यं तामस भक्त हैं । लीला में वृन्दावनहाम 'आगधिका' है, और छवीलडाम 'प्रबोधिका है। ये दोऊ. 'मुंढरी' तं प्रगटी हैं. नातं उनके भावरूप हैं। घार्ता प्रमंग-१ सो उन वृंदावनदास छवीलदास को आपुम में बडो सनेह हतो । सो ये दोऊ मेवक न हते, परिसंतदाम के घर नित्य मंडली में रात्रि को भगवद्वार्ता सुनिवे को जाते । सो एक दिन वार्ता में ऐसो प्रसंग आयो, जो - जिन को नाम (दीमा) न होंइ तिनके हाथ की जल नहीं लेनो । सो सुनि के वृंदावन- दास और छवीलदास ने विचारी, जो - अपने हाथ को जल कोई वैष्णव न लेइगो । तातें अब तो श्रीगुसांईजी के पास नाम पावनो । तव ही जल लेना । ऐसें वृंदावनदास ने कही। तव छवीलदास ने कही, जो - ऐसें कैसें वने ? मोकों तो जल लिये विना न चलेगो और श्रीगोकुल तो यहां तें मँजलि एक है । सो जल विना क्यों चले ? तव वृंदावनदास ने कही, जो..
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