३७६ दोगी बायन वणवन की वार्ता परी है। तव वीनकार ने विचारी, जो ये तो श्रीनाथजी की कटोरी है । ता पाछे जब श्रीगुसांईजी ऊपर पधारे । मो मंग्व- नाद करवाय के आप भीतर पधारे । मा देखे तो मैया के पास सोने की कटोरी नाहीं। तब श्रीगुसांईजी ने मन में कही, जो- जहां होइगी तहां ते आइ जाहगी। पाछे आप मंगल भीग धरि के तिवारी में विराजे । तव वीनकार ने वह कटोरी ले के श्री- गुसांईजी के आगे धरी । तव श्रीगुसांईजी ने पूछी, जो - ये तेरे पास कसे आई ? तब इन कही, जी - महाराज ! बीना में धरी हती । तब श्रीगुसांईजी आए तो अंतरजामी हैं । मो जानि गए, जो - श्रीनाथजी इन परीझि के दीनी है । तर श्रीगुसांईजी ने वीनकार तें कही, जो - कटोरी श्रीनाथजी ने तोकों दीनी हे सो त राखि ले। तव वीनकार ने कही, जो- महाराज ! मैं श्रीनाथजी की कटोरी कसें राखों ? ये तो श्री- नाथजी के पास रहेगी । तब श्रीगुसांईजी ने कही, जो - हमारी आज्ञा हे तू राखि । तव वीनकार ने कही, जो - महाराज ! आप की आज्ञा है तो ये मेनें लीनी, और मैं तो आप को सेवक हों। तातें मने भेट करी । ऐसे कहि के आगे धरि के दंडवत् करी । तब श्रीगुसांईजी ने खासा करवाय के भीतर धरी । पाठें श्रीगुसांईजी ने वीनकार के मन को जानी । सो आपने वीनकार तें पूछी, जो - तेनें कहूँ जाइवे की मन कियो है ? तव वीनकार ने कही, जो- महाराज ! गृहस्थ हैं सो व्याह काज के लिए द्रव्य चहिए । तातें परदेस जाइवे को मन हतो। श्रीगुसांईजी ने कही, जो-तू परदेस मति जाहि । तो पे श्रीनाथजी प्रसन्न हैं। तोकों द्रव्य चाहिए तो श्रीनाथजी
पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/३७७
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।