एक ब्रजवासो, एक मोची-चनिया, एक ब्राह्मन ३६७ भलो होइ । तव मानिकचंद ने कही, जो - भलो, जो खर्च होइ सो करेंगे । तव हरीदास की बेटी ने कही, जो - सव गामन में 'कंकोत्री' लिखि कै सव वैष्णव को बुलाओ। तब मानिकचंद ने वैसेही कियो । सो सव वैष्णव बुलाए। ध्वजा ठाढ़ी करी। मंडप रोपे । सव वैष्णव आए । सवन को महाप्रसाद लिवायो तव हरिदास की बेटी ने इन ब्राह्मन वैष्णव तें कही, जो - सब वैष्णव महाप्रसाद ले उठे तब एक डबरा में थोरी थोरी सवन की जूंठनि भेली करि लीजो । ऐसें तीन दिन तांई लेनो। सवन की पातरि उठावनी, सब सुद्ध करनो। पाठे उन ब्राह्मन वैष्णव ने विश्वासपूर्वक वैसे ही एक डबरा में सवन की जूंठनि भेलो करि कै आप ले गयो। सव जगह सुद्ध करी। सो दूसरे दिन कोढ़ आधो रह्यो । फेरि दूसरे दिन लीनी । तब कोढ़ चोथाई रह्यो। पाछे फेरि तीसरे दिन लीनी । तब देह कंचन सी भई । पाठें वह ब्राह्मन-वैष्णव हरिदास की बेटी सो विदा व्है श्रीगुसांईजी के पास आयो । सो सव समाचार श्रीगुसांईजी के आगे कहे । और कह्यो, जो - महाराज ! उहां वड़ो आनंद भयो । हजारन रुपैया श्रीगोवर्द्धननाथजी की भेंट भए । पाछे श्रीगुसांईजी की भेंट हूँ वोहोत भई ही सो सव श्रीगुसांईजी के पास पहोंचाए । तातें वैष्णव कों जो करनो सो विचारि के करनो। और जो- विना विचारे करे तो संदेह न करनो। भावप्रकाश-या वार्वा को अभिप्राय यह है, जो - भगवदीय वैष्णवन में जाति-बुद्धि सर्वथा न करनी । किये तें अपराध होई । तातें भगवदीय वैष्णव को स्वरूप अलौकिक जाननो। सो वे ब्रजवासी, ब्राह्मन, मोची. ए तीन्यो श्रीगुसांईजी के
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