एक साहुकार के वेटा को यहू, मरत की ३४९ तें विजय किये । सो श्रीनाथजीद्वार पाँव धारे। और वह स्त्री और वाकौ पिता-सुसर सव साथ ही हैं। सो इन सवन ने श्री- गोवर्द्धननाथजी के दरसन किये। ता पाछे ब्रज की परिक्रमा करी । पाछे केऊ दिन श्रीगोकुल में रहि के श्रीगुसांईजी पास श्रीमुख की कथा सुनी। ता पाछे मारग को रीति श्रीगुसांईजी सों पूछी, सो श्रीगुसांईजी ने कृपा करि कै कही। ता पाळे वा स्त्रीने श्रीगुसांईजी सों विनती करि कै, लालजी की सेवा पधराय कै, श्रीगुसांईजी सों विदा होइ के अपने देस को सब चले। तव श्रीगुसांईजी वा स्त्री को घनो समाधान कियो। और वाके सुसर, धनी सों कह्यो, जो-तुम सुनो। तुम्हारो धर्म और लौ- किक लाज या स्त्रीने राखी है। और याकौ ताप श्रीठाकुरजी सहि ना सके। और याकी आर्ति सों तुम हू वैष्णव भये । तुम या वाई कहे सो, और जा वात में यह बाई राजी रहे सो करियो । याही मैं तुम्हारो भलो है। यह अलौकिक जीव है, आधिदैविक है । या समान धीर कोऊ नाहीं । जो - अत्यंत दुःख पड़े धी- रज राख्यो । अपनो धर्म खोयो नाहीं । ताही कों दैवी कहिये। ता पाठे सव लोग विदा होइ के अपने घर आये । ता पाजें जैसे श्रीगुसांईजी की आज्ञा ही तैसें ही सेवा करन लागे । आजा प्रमान सव कारज करे। ऐसें करत थोरेसे दिन में श्रीठाकुरजी सानुभावता जनावन लागे । और वा स्त्री के सकल मनोरथ पूरन करे । और घर के लोग हू सव याकी आज्ञा में चलन लागे। ऐसें जो अपनो धर्म राखे वाके आधीन सव होई । भावप्रकाश---या वार्ता में यह जताए, जो - वैष्णव कैसोह संकट आमें तामें धीरज न छोरे। जानें, जो - प्रभु मन भली कन्त हैं। ताने या प्रकार विम्बाम "
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