एक साहुकार के वेटा की बहू, सूरत की ३३९ द्वार में आवो। और मेरे पिता को बुलाउ। तुम सव ढींग ठाढ़े रहो । ता पाछे जुवाव तो सुनोगे। पाछे तुम कहोगे सो हों करोंगी। ता पाछे वाकों राजद्वार में ले जाँइ कै ठाढ़ी करी । तब तो बूंघट लाज कछु करयो नाहीं। और बूझ्यो सो सेव कह्यो । पाछे वा तुरक ने कही, जो-अव यह स्त्री-चरित्र कहा फेलायो है ? अब चले नाहीं । यह कछू ख्याल नाहीं। इतनेकी गवाही हैं । ऐसें लिख्यो तें करवायो है । ता पाछे वह लिख्यो और पुरुषान को नाम और देह के चिन्ह सव वांचि सुनायो । तव वा स्त्री ने कह्यो, जो - हों तो कछ जानत नाहीं, जो यह कैसे भयो है। और यह कहां कौ? ऐसें कहि के रोवे और मूंड पीटे । तव राजद्वार के सब कोऊ कहे, जो- यह स्त्री झूठी है । तातें याकी कोऊ कछु मानो मति । स्त्री जन को विश्वास नाहीं । तब हाकिमने कही, जो - याकों या तुरक कों. देहु । और दोउन को वाहिर काढ़ि देहु । तव वा स्त्री ने कह्यो, जो- न जाने यह कहा कोप भयो है ? और कैसे लिख्यो भयो है ? परि प्रभुन कौ कछू कोप है। परि भले, हों अब तो झूठी भई हों। तातें मेरो कह्यो कौन माने ? परि पृथ्वीपति पास हम दोऊन को दिल्ली आगरे पठवाउ। उहां पृथ्वीपति पात्साह पास चलो । काहे तें, जो - हों तो कछु जानत नाहीं और कछु देख्योहू नाहीं। और न जाने यह लिख्यो कैसे भयो ? परि हों मेरी देह त्याग करूंगी। मेरो भोग पूर्व जन्म कौ आयो है । परि हों याकों मेरे सरीर को हाथ लगावन नाही देउंगी। हों तो देह त्याग करूंगी। तुम्हारे यावद् जीवन लों यह कलंक टरेगो नाहीं । तातें तुम मेरी साथ चलो। कदाचित् पृथ्वीपति
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