३२० दोमा बावन वणवन की वार्ता वंसजी सों कहे, जो - अब कहा कर्तव्य है ? जीव तो दोऊ देवी हैं। और सरनि आइवे की आतुरता है । यह मुनत ही चाचा हरिवंसजी को करना आई। मो वाही समे उठि के ठाढ़े भये । और कह्यो. जो-ब्राह्मन-ब्राह्मनी हमारे संग चलेंगे। तव संतदासजी ने चाचा हरिवंसजी सों कह, जो - ये जप्ट के दिन हैं दुपहरी कौ समे है । तातें आज तो आये हो. काल्हि जैयो। ये तो सरनि आय चुके हैं दोई दिन पीछे ले के जयो। यह वचन संतदासजी के चाचाजी मुनि के कह्यो, जो- श्रीगु- सांईजी को प्रागट्य देवी जीवन के उद्दारार्थ ही हैं। सो जीवन के लिये तहां ते जगत में पधारे हैं । इतनो श्रम कियो है । सो हम ढील करें सो उचित नाहीं हैं। तातं जीव को ले के अव- स्य अव ही जानो उचित है। या वात में हमकों श्रम नाहीं हैं। भावमकाग-यामें यह जतायो, जो - भगवदीय परमार्थी होत है। जा भांति जीव को भगवत्प्राप्ति वेगि होई सोई कार्य करत है । नामें उन को श्रम होत नाहीं। ऐसे उदार होत हैं। और उन को म्वारथ लेग होत नाही। सो ऋणढामजी गाए हैं। सो पद- राग मालय श्रीविठ्ठलनाथ बसत जीय जाके ताकी रीति प्रीति छवि न्यारी । प्रफुलित वदन कांति कसनामय नैनन में झलके गिरिधारी ॥ उग्र स्वभाव परम परमारथ स्वारथ लेस नही संसारी। आनंद रूप करत एक छिन में हरिजु की कथा कहत विस्तारी ।। मन वच कर्म ताही को संग कीजे पयत व्रज युवतिन सुखकारी । 'कृष्णदास' प्रभु रसिक-मुकुटमनि गुन-निधान श्रीगोवर्द्धनधारी ।। यह सुनि के संतदास कहे, धन्य चाचाजी ! तुम ऐसे अंत- रंग वैष्णव हो। हम तुम्हारे सत्संग के लिये दोइ दिन रहिवे की बात कही। तातें अब तो वेगि तुम इन जीवन को कृतार्थ
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