एक विरक्त, गुजरात को ३०७ सो लीला में अनेक पशु पक्षी हैं। तिन सत्रन के एक-एक के न्यारे-न्यारे अनेक भाव हैं । सो सव स्वरुपात्मक हैं । तामें यह पेंचु 'तमचर' के भावरूप है । सो प्रातःकाल होई तब वह नंदालय में आवत है । पार्छ मधुर कोमल स्वर सो प्रभुन कों जगावत हैं । तातें श्रीठाकुरजी इन पर सदा सर्वदा प्रसन्न रहत हैं। वार्ता प्रसंग-१ सो एक समै श्रीगुसांईजी के दरसन करिवे को एक साथ गुजरात को गोकुल आयो हतो। सो वा साथ में एक विरक्त हू हुतो । सो इन श्रीगुसांईजी के दरसन पाए । सो दरसन करि कै वोहोत प्रसन्न भयो । ता पाउँ वा विरक्त ने श्रीगुसांईजी सों विनती कीनी, जो - महाराज, ! मोकों नाम सुनाइए । तव श्रीगुसांईजी ने वाको नाम सुनायो । ता पाछे श्रीगुसांईजी आपं वाकों कृपा. करि निवेदन कराए। तव वा विरक्त ने श्रीगुसां- ईजी सों विनती कीनी, जो - महाराज ! अव मोकों कहा कर्तव्य है ? तव श्रीगुसांईजी वा विरक्त को आज्ञा किये, जो- तुम नाममंत्र को हृदय में जप करो। तासों तुमकों भगवद्भाव सिद्ध होयगो। सो ता दिन तें वह विरक्त नित्य नाममंत्र को अपने हृदयं में जप करन लाग्यो । सो केतक दिन में वाकों श्रीगुसांईजी की कृपा ते भगवद्भाव उत्पन्न भयो। तव वह श्रीनवनीतप्रियजी के नित्य दरसन करे । पाठे श्रीगुसांईजी के दरसन करे । या प्रकार रहतो।, पाछे वह विरक्त वैष्णव श्रीगुसांईजी सों आज्ञा मांगि श्रीगोवर्द्धननाथजी के दरसन को गयो । सो दरसन करि कै उहां ते व्रज परिक्रमा को गयो । सो परिक्रमा करि श्रीगोकुल आयो । पाठें वह अहरनिस फिरिखोई करे । कहूं स्वतंत्र रहे नाहीं । सो उत्तम स्थल, उत्तम वार्ता में अहर्निस रहे। भगव-
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