एक डोकरी, जान आठ वेर काल फेरथो ३०५ उत्सव आयो है । तातें अब ही तो मैं नाहीं आउं । तव काल पाछौ गयो। पाठे काल फेरि श्रीआचार्यजी महाप्रभुजी के उत्सव पैं आयो । तव डोकरी ने कही, जो- अव तो श्रीआ- चार्यजी महाप्रभुजी के उत्सव पाछे आउंगी। तब काल फिरि गयो । सो कितनेक दिन पाछे फेरि आयो। तव डोकरी न कही, जो - जन्माष्टमी कौ उत्सव करि के आउंगी। तब काल फिरि गयो । सो केतेक दिन पाछे फेरि आयो । तव डोकरी ने कही, जो- यह उत्सव राधाष्टमी की करि के आउंगी। तब काल फिरि गयो। तव काल तो दिक होंड के धर्मराज तें कही, जो-महाराज ! वा डोकरी ने तो वरस दिन में आठ फेरा कर- वाए। जव मैं जाउं तव कहे, जो-अब तो फलानो उत्सव है। तातें नाहीं आऊंगी । सो मैं तो कायो होइ गयो । तव धर्म- राज ने कही, जो - वह तो भगवदीय हैं । तातें उन पे मेरो दंड लगे नाहीं । मेरो वल चले नाहीं। तब काल तो सुनि के अपने ठिकाने वैठयो। भावप्रकाश-या वार्ता को अभिप्राय यह है, जो कोऊ भगवत्सेवा भाव प्रीति संयुक्त करत हैं तिन को काल वाधा करि सकत नाहीं। ऐसो सेवा की प्रभाव है। वहोरि एक समै श्रीगुसांईजी राजनगर पधारे । सो भाईला कोठारी के घर विराजे। सो वैष्णव सब दरसन को आए । सो वह डोकरी हू आई। तव श्रीगुसांईजी ने श्रीमुख तें कही. जो- आवो 'अष्टपदी। तब वैष्णवन श्रीगुसांईजी सां विनती कीनी, जो-महाराज ! अष्टपदी सो कहा ? तव श्रीगुसांईजी ने कही. जो - भीष्मपिता ने एक वर काल को पाछी फेरन्यो । और या घार्ता प्रसग-२
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