३०२ दोसौ बावन वैष्णवन की वार्ता लै के वह महाप्रसाद डारि दीनो । सो वा मंडली में महादेवजी भगवदगुनानुवाद सुनिवे को आवते । सो तिन चना प्रसादी वोनि वीनि के लिये । तब वैष्णव ने पूछी, जो- ये कौन है ? तव देखें तो महादेवजी है। तव वैष्णव ने कही, जो - यह तुम कहा करो हो ? तव महादेवजी ने कही, जो- सेठ ने चना डारि दीने हैं सो मैं वीनत हों । सो नित्य ऐसे ही करे हैं। तब या क्षत्री वैष्णव ने सेठ ते पूछी, जो - तुम नित्य महाप्रसाद को अनादर करत हा ? तव सेठ ने नाहीं करी। तव वणव ने कही, जो - महादेवजी कहत हैं तुम झूठ क्यों बोलत हो? तुम कों द्रव्य को अहंकार है। सो तुम्हारो अहंकार मिटेगो तव तुम कों वैष्णव-मंडली में बुलावेंगे। पाछे वा वैष्णव ने सवन सों कह्यो, जो- याकों कोई जैश्रीकृष्ण मति करियो। और वैष्णव-मंडली में मति आवन दीजो । ता पानें कोई वैष्णव श्रीकृष्ण-स्मरन न करें। तव वह सेठ मथुरा ते श्रीगोकुल कों आयो । सो मन में कह्यो, जो - मैं श्रीगुसांईजी सों विनती करूंगो। सो मोकों वैष्णव-मंडली मिले । पाठे श्रीगुसांईजी को दंडवत् करी । तव श्रीगुसांईजी पीठि फेरि के बैठे। तव सेठ ने विनती कीनी, जो - महाराजाधिराज! वैष्णव मंडली ने मेरो त्याग कियो है। और आप (हू) पीठि फेरि कै बिराजे हो । सो आप कृपा करि कै आज्ञा करिये, जो-मेरो कहा अपराध है ? तब आपने आज्ञा करी, जो - उहां वैष्णव मंडली ने त्याग कियो, तो मेने ही त्याग कियो। तब वाने बिनती करी, जो-महाराज! मेरो ठिकानो अब कहां? तब आज्ञा करी, जो-जब वैष्णव, मंडली में लेंगे तब हम दरसन देइंगे । तब वह सेठ मथुरा आयो ।
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