पृष्ठ:दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता.djvu/२९८

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हरिदास, जानें वेटा को मारयो २९३ घा प्रनंग- सो एक समै हरिदास के घर मोहनदास आए। सो हरि- दास देखि के वोहोत प्रसन्न भए । तव दोऊ मिलि के भग- वद् सेवा करते और भगवद्वार्ता करते । भगवदरस में छके र- हते । ऐसें करत केतेक दिन वीते । तव मोहनदास ने कही. जो - अव वोहोत दिन भए सो अव हम चलेंगे। तव हरिदास ने चलत चलत मोहनदास कों और हू पांच सात दिन अपने घर आग्रह कर के राखे । तव फेरि मोहनदास ने कही, जो- अव तो अवस्य सवेरे जाइंगे। तब हरिदास ने अपनी स्त्री सों कही, जो- अब तो ये सवेरे जाइंगे। तो राखिवे को कहा उपाय करनो ? तव स्त्रीने कही, जो - तुम कहो सो करे । तव हरिदास के वरस सात को एक लरिका हतो । सो हरिदासने अपनी स्त्री सों कही, जो-अपने वेटा को मारि। तब इन वैष्णव को सोच होइगो तव ये रहेंगे। तव स्त्री ने ऐसे ही करयो। पाठे मोहनदास सवारे जाँइवे लगे तव हरिदास और हरिदास की स्त्री ने कही, जो - बेटा तो मरि गयो । अब तुम कहां जाउगे ? तव मोहनदास देखे तो वेटा मरयो है । तब मोहन- दास ने अपने मन में विचारयो, जो-काल्हि रात्रि को तो यह लरिका आछौ खाँत खेलत हुतो । सो सवेरे ही ये कैसे मरयो ? पाछ मोहनदास ने जान्यो, जो-मोकों रोकिवे के तांई इन अपने वेटा को विप दे मारयो है। सो मोहनदास को रोमांच व्है आए । पाठें इन श्रीगुसांईजी को स्मरन करि चरनोदक मुख में मेलि अष्टाक्षर कहि के वा लरिका कों जिवायो। ता पाठं लरिका सों कहो. जो - मैं जात हों मोसों जैश्रीकृष्ण तो करि । तब